Thursday, June 29, 2017

"हिंदुस्तान का विपक्ष,हितकारी या सँहारी"??- पीताम्बर दत्त शर्मा (स्वतंत्र टिप्पणीकार)

भारत में "विपक्ष"कई प्रकार का रहा है ,पहले राक्षसों के रूप में जब देवताओं का शासन था !उस समय भी अपनी प्रवृत्ति अनुसार कोई भी देवता या मानव राक्षस बन जाता था !जिसके पास ज्यादा शक्तियां आ जातीं थीं और वो नाजायज़ तरीकों से विशेष उपलब्धियां और साधन प्राप्त कर उनका दुरपयोग करने लग जाता था ,उसे लोग "राक्षस" कहने लगते थे ! फिर राजाओं का शासन होने लगा तो दुसरे राज्यों के शासक अपने साधनों द्वारा पडोसी राज्यों के लोगों को भड़काते थे , वहाँ के मंत्रियों को राजा बना देने का लालच देकर बगावत करवा देते थे ,तो युद्ध पश्चात् विपक्षी राजा बन जाते थे !तीसरा तरीका ये होता था कि राजा का वो बेटा अपने पक्ष में अपने पिता के मंत्री को अपने साथ मिला लेता था तो वो बगावत करके अपने पिता को जेल भेज देता या मरवा देता था और स्वयं सत्तासीन हो जाता था !या अकेले ही कोई मंत्री राजा के परिवार को मारकर स्वयं राजा बन जाता था !
                              फिर आये हमारे देश में मुगल और अँगरेज़ उन्होंने भी येन-केन प्रकरेण ,फूट डालते गए और हम पर राज करते गए !1857 की क्रांति के पश्चात् देश में जाग्रति फैली और एक लम्बे संघर्ष के पश्चात् लाखों लोगों की शहादत के नतीजों से देश को आजादी मिली !और जिन्होंने माफियां मांगीं,अंग्रेज़ों-बादशाहों के तलवे चाटे वो देश के कर्णधार बन गए !और जिन्होंने बिना कोई लालच के देश की सेवा करनी चाही वो सब "विपक्षी" हो गए !कई लोग सत्ता में रहते हुए भी विपक्षी थे ,क्योंकि उन्होंने सदा सच्चाई का साथ दिया !
                    1947 में देश आजाद हुआ ,हमारी सरकार बन गयी एक छोटे से "विपक्ष"के साथ !लेकिन जैसे जैसे सत्ता वालों के स्वार्थ देश हित से टकराये ,वैसे-वैसे भारत का विपक्ष बड़ा होता चला गया !भारत हिंदुस्तान बना ,फिर इंडिया और फिर सेकुलर इंडिया हो गया ! देश के हालत ये हो गए कि एक समय ऐसा भी आया इस इण्डिया में जब विपक्ष में केवल कांग्रेस रह गयी और सत्ता में कॉमरेडों को छोड़कर सभी राजनीतिक दल सत्ता में आ गए !कॉमरेड शायद इस लिए सत्ता से अलग रहे ,क्योंकि वो वैचारिक रूप से "हिजड़े "थे ! वो आज तलक निर्णय ही नहीं कर पाए की उनकी विचारधारा क्या है और उन्हें किसके साथ रहना है !
                    इसीलिए उन्होंने "तीसरा-मोर्चा"बनाया जिसमे भाजपा को छोड़ सभी दल शामिल थे !ना तो बिना कांग्रेस वाली सरकार ज्यादा देर चल पायी और ना ही बिना भाजपा वाली सरकार ही चल पायी !एक दौर ऐसा भी आया की इस देश में "मौसमी-प्रधानमंत्री"बनने लगे !जनता भारत की परेशां हो गयी !अटल जी की सरकार के मंत्री-अफसर भी विपक्षियों की चालों से डरने लगे ,अंततः वो भी ज्यादा देर शासन नहीं चला सके ! फिर आया मनमोहन सिंह जी का "मौन-राज्य",जिसमे" जिसने जितना इस देश का "माल"चुरा लिया या खा लिया ,वो उसके बाप का "!!10 सालों के उस शासन ने भ्र्ष्टाचार के पिछले सभी रिकार्ड तोड़ दिए ! तब आया मोदी राज !
                       जनता चाहती थी कि कोई ऐसा आये ,जो इस भ्र्ष्टाचार को मिटाये ! लेकिन जैसे ही मोदी जी ने ये काम शुरू किया ,चोरों की हवा निकलने लगी,उन्हें अपना सब कुछ लुटता दिखाई देने लगा ,तो उन सभी विपक्षी दलों ने " अस्तित्व " बचाने "हेतु धन-बल ,बाहुबल,छल-बल और दुश्मनों से मिलकर भारत की सरकार पर प्रहार करने शुरू कर दिए !विपक्ष के इस "कुत्सित-कार्य"में उन सभी ने इनका साथ दिया जिन्होंने इनके सहारे अपनी उपलब्धियां जीवन में प्राप्त कीं थीं !भरपूर कर्ज़ा उतार रहे हैं देश के बड़े बड़े ,लेखक,एक्टर,एंकर ,पत्रकार ,कवी अफसर आदि आदि !
                   जिसे देख भारत की आम जनता भी सोचने लगी है कि कहीं विपक्षी सही तो नहीं ?इस में उन लोगों का भी पूरा सहयोग है जो सत्ता में तो हैं लेकिन मोदी जी के कार्यों को पूरा करने में कोई सहयोग नहीं कर रहे हैं !आज मोदी जी दो दुश्मनों से जूझ रहे हैं !फैसला देश की उस जनता को करना है जिसे ये बेईमान नेता लोग "समझदार"कहते नहीं थकते !बाकी आप ये मत कहना कि "किसी ने तो हमें बताया नहीं था"!
     
               
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Saturday, June 24, 2017

"तड़प"उनकी ,जो पलते हैं दूसरों की फेंकी हुई बोटियों पर"!!- पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

आजकल देश में एक अस्थिरता का माहौल नज़र आ रहा है!कोई gst को गलत बता रहा है , तो कोई दलितों पर बहुत अत्याचार हो रहे हैं ,ये कह रहा है ! किसी को इस देश में केवल किसान मरते नज़र आ रहे हैं तो कोई पाकिस्तान के साथ फौरन युद्ध चाहता है !कई नयी जातियां आरक्षण कीमांग के साथ तोड़-फोड़ -आगज़नी करती नज़र आ रही हैं , तो कई अलग प्रदेश की मांग करते अपने ही देश के एक हिस्से में लोगों को मरवा रहे हैं !यहां तलक कि इस देश के अंदर विभिन्न रूपों की आड़ में छिपे हुए देश के गद्दार आवारा युवाओं को पैसों का लालच देकर ,बलात्कार,लूटमार,राहजनी और छेड़खानियां चोरियां भी करवा रहा है !क्या आप जानते हैं की ये क्यों हो रहा है ???????
                    केवल इसलिए कि मोदी जी की सरकार और भाजपा की प्रदेश सरकारें ऐसे दुश्मनों की चालों को नाकाम करने वाले काम कर रहीं हैं !ये लोग विश्व में भाजपा की सरकारों को बदनाम करना चाहते हैं क्योंकि जो विश्व के बड़े देश मोदी जी का कहना मान कर उनके मुताबिक निर्णय ले रहे हैं , वो बंद हो जाएँ !भारत की जनता को जागरूक बनना होगा !किसी भी हड़ताल, धरने,जलूस आदि में तब तलक शामिल ना हों जब तलक आप स्वयं उस विषय के बारे में पूरी तरह से ना जानकारी रखते हों ! तोड़फोड़ करना तो बिलकुल भी नहीं चाहिए !क्योंकि आखिर वो हमारा ही नुक्सान होता है !
                  हमें अपने द्वारा चुनी हुई सरकार पर विश्वास होना चाहिए ! हमें किसी भी राजनेता,पत्रकार टीवी चेनेल के एंकर के बहकावे में नहीं आना है !अगर ये सरकार बुरे काम करेगी तो हम अगले चुनावों में इसे हरा देंगे !किसी और अच्छे दल को चुन लेंगे , लेकिन इन कोंग्रेसियों,कॉमरेडों,लालू,माया की पार्टियों को चुनना ही कोई आवश्यक थोड़े ही है !!
जोश में तो रहो ,लेकिन होश भी हमें नहीं खोना है !समझना है दुश्मन की चालों को !




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Friday, June 23, 2017

संघर्ष की मुनादी के लिये 72 बरस के बूढ़े का इंतजार !!

इंदिरा गांधी कला केन्द्र से प्रेस क्लब तक                                                          ---------------------------------

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का / हुकुम शहर कोतवाल का... / हर खासो-आम को आगह किया जाता है / कि खबरदार रहें / और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से / कुंडी चढा़कर बन्द कर लें /गिरा लें खिड़कियों के परदे /और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें /क्योंकि , एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में / सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है ! धर्मवीर भारती ने मुनादी नाम से ये कविता नंवबर 1974 में जयप्रकाश नारायण को लेकर तब लिखी जब इंदिरा गांधी के दमन के सामने जेपी ने झुकने से इंकार कर दिया । जेपी इंदिरा गांधी के करप्शन और तानाशाही के खिलाफ सड़क से आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे । और संयोग देखिये या कहे विडंबना देखिये कि 43 बरस पहले 5 जून 1974 को जेपी ने  इंदिरा गांधी के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया । और 5 जून 2017 को ही दिल्ली ने हालात पलटते देखे । 5 जून को ही इंदिरा गांधी की तर्ज पर मौजूदा सरकार ने निशाने मीडिया को लिया । सीबीआई ने मीडिया समूह एनडीटीवी के प्रमोटरो के घर-दफ्तर पर छापा मारा । और 5 जून को ही  संपूर्ण क्रांति दिवस के मौके पर दिल्ली में जब जेपी के अनुयायी जुटे तो उन्हे जगह और कही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में मिली । यानी जिस दौर में जेपी के आंदोलन से निकले छात्र नेता ही सत्ता संभाल रहे हैं, उस वक्त भी दिल्ली में जेपी के लिये कोई इमारत कोई कार्यक्रम लायक हाल नहीं है जहा जेपी पर कार्यक्रम हो सके । तो जेपी का कार्यक्रम उसी इमारत में हुआ जो इंदिरा गांधी के नाम पर है । और जो सरकार या नेता अपने ईमानदार और सरोकार पंसद होने का सबूत इंदिरा के आपातकाल का जिक्र कर देते है । उसी सरकार , उन्हीं नेताओं ने भी खुद को इंदिरा गांधी की तर्ज पर खडा करने में कोई हिचक नहीं दिखायी । 

तो इमरजेन्सी को  लोकतंत्र पर काला धब्बा मान कर जो सरकार मीडिया पर नकेल कसने निकली उसने खुद को ही जब इंदिरा के सामानातंर खडा कर लिया तो क्या ये मान लिया जाये कि मौजूदा वक्त ने सिर्फ इमरजेन्सी की सोच को  परिवर्तित कर दिया है । उसकी परिभाषा बदल दी है । हालात उसी दिशा में जा रहे हैं? ये सवाल इसलिये  क्योंकि इंदिरा ने तो इमरजेन्सी के लिये बकायदा राष्ट्रपति से दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाये थे । लेकिन मौजूदा वक्त में कोई दस्तावेज नहीं है । राष्ट्रपति के कोई हस्ताक्षर नहीं है । सिर्फ संस्थानों ने कानून या

संविधान के अनुसार काम करना बंद कर दिया है । सत्ता की निगाहबानी में तमाम संस्धान काम कर रहे है । तो इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि जेपी का नाम भी लेंगे । और जेपी के संघर्ष के खिलाफ भी खड़े होंगे । इंदिरा का विरोध भी करेंगे और इंदिरा के रास्ते पर भी चलेंगे । दरअसल संघर्ष के दौर में जेपी के साथ खडे लोगों के बीच सत्ता की लकीर खिंच चुकी है । क्योंकि एक तरफ वैसे है जो सत्ताधारी हो चुके है और सत्ता के लिये चारदिवारी बनाने के लिये अपने  एजेंडे के साथ है तो दूसरी तरफ वैसे है जो सत्ता से दूर है और उन्हे लगता है सत्ता जेपी के संघर्ष का पर्याय नहीं  था बल्कि क्रांति सतत प्रक्रिया है। इसीलिये दूसरी तरफ खड़े जेपी के लोगों में गुस्सा है। संपूर्ण क्राति दिवस पर जेपी को याद करने पहुंचे कुलदीप नैयर हो या वेदप्रताप वैदिक दोनो ने माना कि मौजूदा सत्ता जेपी की लकीर  को मिटा कर आगे बढ रही है। वहीं दूसरी तरफ मीडिया पर हमले को लेकर दिल्ली के प्रेस क्लब में 9 जून को जुटे पत्रकारो के बीच जब अगुवाई करने बुजुर्ग  पत्रकारों की टीम सामने आई तो कई सवालो ने जन्म दे दिया। मसलन निहाल सिंह , एचके दुआ, अरुण शौरी , कुलदीप नैयर , पाली नरीमन सरीखे पत्रकारों, वकील जो जेपी के दौर में संघर्षशील थे उन्होंने मौजूदा वक्त के एहसास तले 70-80 के दशक को याद कर तब के सत्ताधारियों से लेकर इमरजेन्सी और प्रेस बिल को याद कर लिया तो लगा ऐसे ही जैसे सिर्फ धर्मवीर भारती की कमी है । जो मुनादी लिख दें । तो देश में नारा लगने लगे कि सिंहासन खाली करो की जनता आती है । लेकिन ना तो इंदिरा गांधी कला केन्द्र में संपूर्ण क्रांति दिवस के जरीय जेपी को याद करते हुये और ना ही प्रेस क्लब में अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल भागेदारी के लिये जुटे पत्रकारो को देखकर कही लगा कि वाकई संघर्ष का माद्दा कहीं  है क्योकि सिर्फ मौजूदगी संघर्ष जन्म नहीं देती । संघर्ष वह दृश्टी देती है जिसे 72 बरस की उम्र में जेपी ने संघर्ष वाहिनी से लेकर तमाम युवाओ को ही सडक पर खडा कर उन्ही के हाथ संघर्ष की मशाल थमा दी । और मशाल थामने वालो ने माना कि कोई गलत रास्ता पकडेंगे तो जेपी रास्ता दिखाने के लिये है । 

लेकिन मौजूदा वक्त का सब बडा सच संघर्ष ना कर मशाल थामने की वह होड है जो सत्ता से सौदेबाजी करते हुये दिके और सत्ता जब अनुकुल हो जाये तो उसकी छांव तले अभिव्यक्ति की आजादी के नारे भी लगा लें । और इंदिरा गांधी कला केन्द्र के कमान भी संभाल लें । अंतर दोनों में नहीं है । एक तरफ इंदिरा गांधी कला केन्द्र में जेपी का समारोह करा कर खुश हुआ जा सकता है कि चलो कल तक जहा सिर्फ नेहरु से लेकर राजीव गांधी के गुण गाये जाते थे अब उस इमारत में जेपी का भूत भी घुस चुका है । और प्रेस क्लब में पत्रकारो का जमावडे को जेखकर खुश हुआ जा सकता है चलो सत्ता के  खिलाफ संघर्ष की कोई मुनादी सुनाई तो दी । वाकई ये खुश होने वाला ही माहौल है । संघर्ष करने वाला नहीं । क्योकि जेपी के अनुयायी हो मीडिया  घराने संभाले मालिकान दोनो अपने अपने दायरे में सत्ताधारी है । और सत्ताधारियो का टकराव तभी होता है जब किसी एक की सत्ता डोलती है या दूसरे की सत्ता पहले वाले के सत्ता के लिए खतरे की मुनादी करना लगती है । लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं कि सत्ता इमानदार हो गई है । या सत्ता सरोकार की भाषा सीख गई है । ये खुद में ही जेपी और खुद में ही इंदिरा को बनाये रखने का ऐसा हुनर है जिसके साये में कोई संघर्ष पनप ही नहीं सकता है । क्योकि दोनो तरफ के हालातो को ही परख लें । मसलन जेपी के सत्तादारी अनुनायियो की फेहरिस्त को परखे तो आपके जहन में सवाल उटेगा चलो अच्छा ही किया जो जेपी  के संघर्ष में इनके साथ खडे नहीं हुए । लालू यादव, रामविलास पासवान , राजनाथ सिंह , रविशंकर प्रसाद , नीतीश कुमार से लेकर नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि मौजूदा केन्द्र में दर्जनों मंत्री और बिहार-यूपी और गुजरात में मंत्रियो की लंबी फेरहिस्त मिल जायेगी जो खुद को जेपी का अनुनायी । उनके संघर्ष में साथ खडे होने की बात कहेगे । और दूसरी तरफ जो मीडिया समूह घरानो में खुद को तब्दील कर चुके है वह भी इंदिरा के आपातकाल के खिलाफ संघर्ष करने के अनकहे किस्से लेकर मीडिया मंडी में घुमते हुये नजर आ जायेंगे । बीजेपी के तौर तरीके इंदिरा के रास्ते पर नजर आ सकते है और काग्रेस का संघर्ष बीजेपी के इंदिराकरण के विरोध दिखायी भी दे सकता है।

इंदिरा का राष्ट्रवाद संस्थानों के राष्ट्रीकरण में छुपा था । मौजूदा सत्ता का राष्ट्रवाद निजीकरण में छुपा है । इंदिरा के दौर में मीडिया को रेंगने कहा गया तो वह लेट गया और मौजूदा वक्त में मीडिया को साथ खडे होने कहा जा रहा है तो वह नतमस्तक है । इंदिरा के दौर में मीडिया की साख ने मीडिया घरानो को बडा नहीं किया था । लेकिन मौजूदा दौर में पूंजी ने मीडिया को विस्तार दिया है उसकी सत्ता को स्थापित किया है । इंदिरा गांधी के सामने सत्ता के जरीये देश की राजनीति को मुठ्ठी में करने की चुनौती थी । मौजूदैा वक्त में सत्ता के सामने पूंजी के जरीये देश के लोगो को अपने राजनीति एजेंडे तले लाने की चुनौती है । तब करप्शन का सवाल था । तानाशाही का सवाल था । अब राजनीति एजेंडे को देश के एजेंडे में बदलने का सवाल है। सत्ता को ही देश बनाने- मनवाने का सवाल है । तब देश में सत्ता के खिलाफ लोगो की एकजुटता  ही संघर्ष की मुनादी थी । अब सत्ता के खिलाफ पूंजी की एकजूटता ही सत्ता बदलाव की मुनादी होती है । इसीलिये मनमोहन सिंह को गवर्नेंस पाठ कारपोरेट घराने पढाने से नहीं चुकते । 2011-12 में देश के 21 कारपोरेट बकायदा पत्र लिखकर सत्ता को चुनौती देते है । और  मौजूदा वक्त में कारपोरेट की इसी ताकत को सत्ता अपने चहेते कॉरपोरेट में समेटने के लिये प्रयासरत है । तो लडाई है किसके खिलाफ । लड़ा किससे जाये । किसके साथ खड़ा हुआ जाये । इस सवाल को पूंजी की सत्ता ने इस लील लिया है कि कोई संपादक भी किसी को सत्ताधारी का दलाल नजर आ सकता है । और कोई सत्ताधारी भी कारपोरेट का दलाल नजर आ सकता है । लोकतंत्र की परिभाषा वोटतंत्र में इस तरह जा सिमटी है कि जितने वाले को ये गुमान होता है कि चुनावी जीत सिर्फ राजनीतिक दल की जीत नहीं बल्कि देश जीतना हो चुका है और उसकी मनमर्जी से ही अब लोकतंत्र का हर पहिया घुमना चाहिये । और लोकतंत्र के हर पहिये को लगने लगा है कि राजनीतिक सत्ता से आगे फिर वही वोटतंत्र है जिसपर राजनीतिक सत्ता खडी है तो वह करे क्या । ये ठीक वैसे ही है जैसे एक वक्त  राडिया टेप सिस्टम था । एक वक्त संस्थानो को खत्म करना सिस्टम है । एक वक्त बाजार से सबकुछ खरीदने की ताकत विकास था । एक वक्त खाने-जीने को तय करना विकास है । एक वक्त मरते किसानों के बदले सेंसेक्स को बताना ही विकास था । एक वक्त किसान-मजदूरो में ही विकास खोजना है । सिर्फ राजनीतिक सत्ता ने ही नहीं हर तरह की सत्ता ने मौजूदा दौर में सच है क्या । ठीक है क्या । संविधान के मायने क्या है । कानून का मतलब होना क्या चाहिये । आजादी शब्द का मतलब हो क्या । भ्रम पैदा किया और उस भ्रम को ही सच बताने का काम सियासत करने लगी । इसी के सामानांतर अगर मीडिया की स्तात को समझे तो राजनीतिक सत्ता या कहे राजनीतिक पूंजी का सिस्टम उसके जरुरत बना दी गई । प्रेस क्लब में अरुण शौरी इंदिरा-राजीव गांधी के दौर को याद कर ये बताते है कि कैसे अखबारो ने तब सत्ता का बायकॉट किया । प्रेस बिल के दौर में जिस नेता-मंत्री  ने कहा कि वह प्रेस बिल के साथ है तो उसकी प्रेस कान्फ्रेस से पत्रकारों ने उठकर जाने का रास्ता अपनाया । लेकिन प्रेस क्लब में जुटे मीडिया कर्मीयो में जब टीवी पत्रकारों के हुजूम को देखा तो ये सवाल जहन में आया । कि क्या बिना नेता-मंत्री के टीवी न्यूज चल सकती है । क्या नेताओं-मंत्रियों का बायकॉट कर चैनल चलाये जा सकते हैं। क्या सिर्फ मुद्दों के आसरे , खुद को जनता की जरुरतो से जोडकर खबरों को परोसा जा सकता है । जी हो सकता है । लेकिन पहली लड़ाई सस्ंथानों को बचाने की लड़नी होगी । फिर चुनावी राजनीति को ही लोकतंत्र मानने से बचना होगा । पूंजी पर टिके सिस्टम को नकारने का हुनर सिखना होगा । जब सरकार से लेकर नेताओं के स्पासंर मौजूद है तो प्रचार के भोंपू के तौर पर टीवी न्यूज चैनलों के आसरे कौन सी लडाई कौन लडेगा । जेपी की याद तारिखो में सिमटाकर इंदिरा कला केन्द्र अमर है तो दूसरी तरफ प्रेस कल्ब में इंदिरा की इमरजेन्सी को याद कर संघर्ष का रईस मिजाज भी जिवित है । 

मनाइए सिर्फ इतना कि जब मुनादी हो तब धर्मवीर भारती की कविता ' मुनादी ' के शब्द याद रहे......बेताब मत हो / तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है / बादश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से / तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए / बाश्शा के खास हुक्म से / उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा / दर्शन करो ! /वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी / बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी / ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा /नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा / और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा / लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में / और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो / ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से / बहा, वह पुँछ जाए ! / बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !.





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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...