Saturday, December 31, 2016

"चूहे - चुहियाँ "- पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो.न. +9414657511

माननीय मुलायम सिंह जी का "मान"अभिमान बनकर सामने एकबार फिर से आ गया है !चचा शिवपाल और अमर सिंह जी हमेशां की तरह दोषी ठहराए जा रहे हैं !तो रामगोपाल यादव जी भतीजे के साथ जाँघों पर हाथ मारकर "दंगल" को तैयार खड़े हैं ! आजमखान जी अपनी डूबती लुटिया को बचाने हेतु अतीक अहमद के इशारे पर "सेकुलर ताकतों "को मजबूत करने वास्ते  अखिलेश को एक बार फिर मुलायम जी के चरण पकड़वाकर माफ़ी मंगवाने हेतु ले गए हैं !
                         देखते हैं "ऊँट किस करवट बैठता"है जी !लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि "समाजवादी"बड़ी ही "चतुराई"से काम ले रहे हैं !जनता और बाकी की राजनितिक पार्टियां शायद "गच्चा" खा जाएँ !"अंदर की बात"ये है कि ये सब एक नाटक का हिस्सा है जो शोर शराब जनता को पत्रकारों के ज़रिये दिखाया जा रहा है !असल में इनका मानना है कि जितनी सीटें समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर मिल जाएँ वो भलीं, और बाकी की कमीं अखिलेश और कोंग्रेस से समझौता-गठबंधन करके मिलजाएं वो और ज्यादा बेहतर होगा ! यानिकि "चित भी मेरी और पट भी मेरी", दोनों हाथों में लड्डू होंगे जब विरोध के वोट अखिलेश को और समर्थन वाले मुलायम को मिल जाएंगे !बाप-बेटे में समझौता तो कभी भी हो सकता है जी !
                 चूहे-चुहियाँ यानिकि "समर्थक" तो पीछे आ ही जाएंगे जिंदाबाद करने को !बाकी रही बात समाजवाद के नियमों की , सिद्धांतों की ,वो तो सब कागज़ी बातें हैं जी, बातों का क्या ?आजकल राजनीती में भी वो ही कामयाब है जो सबसे बड़ा "ड्रामेबाज़ और सफल अभिनेता" हो !ये सभी नेता कोंग्रेस की ही पैदाइश हैं !
                         "चूहे-चुहियों"का ज़िक्र हमारे मोदी जी ने भी बड़े चटकारे ले कर किया है जी !वो भी कहते हैं कि मैंने तो देश का "माल"खाने वाले चूहों को ही पकड़ना था !वो किसी को शायद "चुहिया"भी कह रहे थे ! पता नहीं किसे ???कुछ का मानना है कि उनका ईशारा सोनिया जी की तरफ था !लेकिन मैं ये मानने को तैयार नहीं कि मोदी जी "बड़े-बड़े चूहों"को छोड़कर अपना ध्यान एक "चुहिया" पर केंद्रित करेंगे !या फिर उस "चुहिया" के कहने पर ही "मोटे-चूहों" की हिम्मत हुई देश का धन खाने हेतु?
                                  बात जनता की है , वो कहाँ जाए?अपनी मुसीबतें किसे सुनाये?क्या वो केवल "कृपा-पात्र"बनकर ही अपना जीवन व्यतीत करती रहे ?क्या यही उसके भाग्य में है ?मुझे बचपन में पढ़ी "पुनः मूषको भव" वाली कहानी याद आ रही है जी !जिसमें एक चुहिया को ऋषि का कोई "वरदान"भी फिट नहीं बैठता , आखिर में वो वापिस चुहिया ही बन जाती है !क्या हमें भी उसी तरह से "बेईमानी" से ही अपना जीवन चलना होगा ?जो कोंग्रेस ने हमें 60 सालों में सिखाया है ?क्या भगवान् विष्णु के 24 अवतार ,हज़ारों सच्चे गुरुओं की शिक्षा और लाखों ग्रंथों की बातों का हमपर कोई असर नहीं होगा ? बात सोचने वाली है हज़ूर !!
चोर शरेआम ये गीत गाकर हमारा मजाक उड़ा रहे हैं कि "अजी हमसे बचकर कहाँ जाइयेगा,जहां जाइयेगा , हमें पाइयेगा "...................!!!!!



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Wednesday, December 28, 2016

"यादें - 2016 की ,कुछ अच्छी ,तो कुछ कड़वीं "!? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो.न. - +9414657511

मित्रो !! सादर प्यार भरा नमस्कार स्वीकार करें !ये जो जीवन है , चलने का ही नाम है !कोई कहता है , "ज़िन्दगी सिग्रेट का धुंआ ", तो कोई कहता है कि ,"ज़िन्दगी हर कदम , इक नयी जंग है "! किसी ने तो जिंदगी को एक नाटक का ही नाम दे दिया !सबने अपने जीवन के अनुभव के अनुसार इसको अपनी उपमाएं दी हैं !इसलिए सभी सच लगती हैं !
                            तो मित्रो ! चलते चलते  वर्ष 2016 भी समाप्त होने जा रहा है और अंग्रेजों द्वारा प्रचलित 2017 आने वाला है !आप सबको इस आने वाले वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनाएं ! सुखभरी घटनाएं रोज़ आपके जीवन में आती रहें !प्रकृति माता आपके ऊपर मेहरबान रहे !आइये कुछ चित्रों द्वारा वर्ष 2016 की यादों को आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ !जिसमे सामजिक,राजनितिक,प्राकृतिक और विश्व की मुख्य घटनाएं चित्रों द्धारा आपको दिखने का प्रयास करता हूँ ! 















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Thursday, December 22, 2016

" क्या पत्रकारिता, केवल चाटुकारिता,दलाली,और "घटिया नेताओं के स्तरहीन कार्यों" पर मिले "तंज"पर "अनर्गल प्रलाप" का ही नाम है " ??


मुझे इतने दिनों तलक कोई विषय ही नहीं मिल पा रहा था ,अपने विचार आप तक पहुंचाने हेतु !लेकिन परसों जैसे ही "महान पार्टी कोंग्रेस के महान नेता राहुल गांधी"ने गुजरात में जाकर अपना स्पेशल लिखवाया हुआ भाषण एक विशेष अंदाज़ में हमें सुनाकर हमें अनुग्रहित किया , पूछिए मत !हम धन्य हो गए कि चलो , भाई कुछ सीखना चालु तो कर रहा है !चाहे केजरी-प्रशांत के पुराने आरोप,जिन्हें न्यायालय खारिज कर चुका था , को ही पढ़ा गया !हम और हमारे जैसे बिकाऊ,चाटुकार,दलाल टाइप के पत्रकार प्रसन्न हुए और "वारे-वारे-जा"रहे थे !लेकिन कल मोदी जी ने जो उनके भाषण की बखिये उधेड़ीं,और उनको-हम जैसों को नँगा किया ,हमारा सभी प्रकार का "कालापन" बाहर आ गया !
                     तो कल ही "रविश कुमार"ने सारा प्राइम-टाइम अभय दूबे और नीरिजा जी के साथ मिलकर राहुल को बड़ा नेता बताने और भ्रष्ट नेताओं को बचाने में बर्बाद कर दिया ! जनता पर उनके घूम-फिराकर चमचागिरी करने की चाल को अच्छी तरह से समझ लिया !लेकिन सवाल ये उठता है कि ये पत्रकार ऐसा सब करने को क्यों मजबूर हो जाते हैं ,जो पत्रकारिता के मूल नियम-क़ानून को ही उजाड़ कर रख दे ! शर्म आणि चाहिए ऐसे पत्रकारों को !लेकिन साहेब "आती नहीं,आती नहीं.....वाला गीत गाकर ये फिर चालु हो जाते हैं कुछ दिनों के ठहराव के बाद , जो ये खुद कबूलते भी हैं की तरह-तरह की गालियां इनको सुननी पड़तीं हैं !  मोदी जी ने एक उदाहरण देकर समझाया था की संसद में शोर-शराबा करके ये चोरों को "कवर"करते हैं पाकिस्तानी फौजियों की तरह , लेकि ये पत्रकार विपक्षी नेताओं को ही पाकिस्तानी बताने पर तुले हुए थे !उन्होंने तो नहीं कहा लेकिन इन्होंने कह दिया ! वाह भाई वाह !! क्या चतुराई है पत्रकारों की !
                       लेकिन इतना तो अब मेरा भी मानना है कि भाजपा के प्रवक्ता,नेता मंत्री और माननीय प्रधानमंत्री जी को अब विपक्षी नेताओं को गरियाना,धमकाना और दुत्कारना छोड़ देना चाहिए , क्योंकि बिना वजह से इनको "बेचारगी"का भाव मिल जाएगा !   अब बस , आप सब केवल "मुद्दे" की बात "टु  द पॉइन्ट "ही बात करें जी !बाकी आप सोशियल मीडिया वालों पर छोड़ दीजिये श्रीमान !

एक मित्र ने ये भी लिखा कि
                                              पाकिस्तान पर जब से भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक किया है, यह शब्द तब से सोशल मीडिया पर सामाजिक बीमारी को जड़ से समाप्त कर देने का मुहावरा बन गया है। लेकिन अब तक किसी ने सर्जिकल स्ट्राइक खुद अपने घर में कराने की मांग नहीं की। अब मीडिया जगत की बड़ी हस्ती चाहती है की एक सर्जिकल स्ट्राइक मीडिया घरानों और पत्रकारों पर भी होना चाहिए।
पत्रकारिता जगत में आलोक मेहता परिचय के मोहताज़ नहीं है। आउट लुक के संपादक आलोक मेहता ने जब नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के कार्यक्रम में पत्रकारिता की गिरती साख पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि अब वक्त आ गया है एक सर्जिकल स्ट्राइक मीडिया पर भी हो! उनकी इस बात पर उपस्थित पत्रकारों ने ताली बजाकर स्वीकृति की मुहर लगा दी। मेहता का मानना है कि इस धंधे में ऐसा क्या है जो मालिक करोड़ों में खेलने लगता है। कुछ पत्रकार ने रातों रात पेशे की साख बेच दी! उन पर कभी कारवाही क्यों नहीं हुई? वे कहते है क्यों सिर्फ नेताओं के भ्रष्टाचार की बात हो? पत्रकारों की क्यों न हो?
कुछ मछलियां पूरे समंदर को गन्दा कर रही है। दूसरों के ऊपर उंगली उठाना जितना आसान है,खुद के गिरेबान में झांकते हुए कटघरे में खड़ा होना उतना ही मुश्किल। पत्रकारों की चिंता इस बात को लेकर ज्यादा रही कि आज मीडिया संजय की भूमिका छोड़ कर बस मोदी विरोध और मोदी समर्थन के धंधे में लिप्त है। टीवी मीडिया खुद एक पार्टी बन गई है! टीवी पत्रकारिता ने पेशे की दलाली की जड़ पर भी हमला किया! सच तो यह है कि जब से टीवी 24 घंटे का हुआ, संपादको ने स्ट्रिंगरो की एक जमात पैदा की जो मूलतः पत्रकार न हो कर जिले के ठेकेदार और दुकानदार ज्यादा होते थे। उन्हें टीवी चैनल के पैसे से नहीं केवल ‘गन माइक’ और ‘कार्ड’ से मतलब था लेकिन जब लोकल स्तर पर पत्रकारों को भी संपादकों ने दलाली का ठेका दे दिया तो वे रिपोर्टर को पांच सौ की स्टोरी भेज कर पाँच- दस हज़ार की कमाई में लिप्त हो गए! बीमारी यहीं से शुरू हुई।
मेहता कहते हैं सिर्फ व्यापारी और नेता ही क्यों? आज तक किसी भी अखबार वाले या पत्रकार के घर छापा क्यों नहीं। फेरा में कोई पत्रकार क्यों नहीं फंसा। हम सिर्फ नेताओं के खिलाफ क्यों बोले? सनसनी सिर्फ टीवी नहीं,अखबार भी करता है! कई बार तो अखबार नग्न तस्वीरें भी छापता है। यह एक अलग तरह का धंधा है। वहां सर्जिकल स्ट्राइक क्यों नहीं? मेहता का कहना है यह स्ट्राइक खबर को लेकर कतई नहीं होना चाहिये! भ्रष्टाचार को लेकर होना चाहिए। आलोक मेहता पत्रकरिता में परिचय के मोहताज़ नहीं है। लेकिन पेशे के अन्दर शुद्धिकरण की उनकी मांग ने नई बहस को जन्म दिया है! यह बहस आगे चलनी चाहिए। खेमेबाजी में बंटी मीडिया के किसी शब्द का मोल कैसे हो सकता है, जब हमें पहले से पता हो कि कौन सा चैनल और उसका पत्रकार किसका पक्षकार है?
इसके लिए तो सोशल मीडिया आ गया है जनाब। फिर जनता आम जन की इस मीडिया पर भारोसा क्यों न करे? मेनस्ट्रीम मीडिया यदि खुद की सफाई न करे तो उसका सर्जिकल स्ट्राइक क्यों न हो ताकि जनता इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पत्रकार और उस मीडिया हॉउस के पीछे के धंधेबाज पक्षकार की पहचान कर सके। सवाल सिर्फ नेताओं पर क्यों? सवाल करने वालों पर सवाल क्यों नहीं?

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Wednesday, December 21, 2016

करप्शन की गंगोत्री राजनीति से निकलती है, अब तो मान लीजिए........!!!! - पुण्य प्रसून बाजपेयी

हफ्ते भर पहले ही चुनाव आयोग ने देश में रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों की सूचीजारी की। जिसमें 7 राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जिक्र है। लेकिन महत्वपूर्ण वो सूची है, जो राजनीतिक तौर पर जिस्टर्ड तो हो चुकी है और राजनीतिक दल के तौर पर रजिस्टर्ड कराने के बाद इस सूची में हर राजनीतिक दल को वह सारे लाभ मिलते है जो टैक्स में छूट से लेकर। देसी और विदेशी चंदे को ले सकते हैं। बीस हजार से कम चंदा लेने पर किसी को बताना भी नहीं होता कि चंदा देने वाला कौन है। और इस फेहरिस्त में अब जब ये खबर आई कि चुनाव आयोग 200 राजनीतिक दलों को अपनी सूची से बाहर कर रहा है। सीबीडीटी को पत्र लिख रहा है। क्योंकि ये पार्टियां मनीलान्ड्रिंग में लगी रहीं। तो समझना ये भी होगा कि चुनाव आयोग की इस फेहरिस्त में सिर्फ दो सौ या चार सौ राजनीतिक दल रजिस्टर्ड नहीं है जिन्होंने चुनाव नही लड़ा और सिर्फ कागज पर मौजूद है। बल्कि ऐसे राजनीतिक दलों की फेहरिस्त 13 दिसंबर यानी पिछले हफ्ते तक 1786 राजनीतिक दलों की थी। और इन राजनीतिक दलो की फेहरिस्त में इक्का दुक्का या महज दो सौ राजनीतिक दल नहीं है जो टैक्स रिटर्न तक फाइल नहीं करतीं। बल्कि चुनाव आयोग सूत्रों के मुताबिक एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करती। तो इस फेरहिस्त को देखकर कोई भी सवाल कर सकता है कि क्या राजनीतिक दल कालाधन खपाने के लिये बनाये जाते हैं। क्या चुनाव लड़ने वाली राजनीतिक पार्टियां अपने काले चंदे को खपाने के लिये भी पार्टियां बनाती है। क्योंकि चुनाव आयोग आर्टिकल 324 के तहत चुनावी प्रक्रिया पर कन्ट्रोल तो कर सकता है। लेकिन चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल को अपने तौर पर हटा नहीं सकता। तो क्या जिन 200 राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन रद्द करने का जिक्र चुनाव आयोग अब कर रहा है उसके लिये सीबीडीटी जांच जरुरी है। यानी राजनीति पाक साफ हो । इसके लिये पहल सरकार को ही करनी होगी। क्योंकि कायदे कानून अगर कड़े होंगे। राजनीतिक दलों के खिलाफ आरोप साबित होने पर कानून अपना काम करते हुये दिखे। जांच एजेंसियां स्वतंत्रता के साथ काम करने लगे। तो फिर चुनाव आयोग से राजनीति को पाक साफ करने की गुहार पीएम को भी करने की जरुरत पडेगी नहीं । क्योकि कानून सरकार को बनाना है। लागू जांच एंजोसियों को करना है। समझना होगा कि चुनाव आयोग सिर्फ पार्टियों को रजिस्टर्ड कर सकती हैं। रद्द करने का अधिकार उसके पास नहीं है। तो बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीतिक दल बनने के साथ ही शुरु होती है। तो आईये इसे भी परख लें। क्योंकि राजनीति का सच तो यही है कि कॉरपोरेट,कालाधन और दागियों ने भारतीय राजनीति को बंधक बना लिया है। या कहें कि भारतीय राजनीति की दशा-दिशा उसी कॉरपोरेट की मर्जी से तय होती है, जिसे विपक्ष में रहते हुए हर दल निशाने पर लेता है और सत्ता में आते ही खामोश हो जाता है । और सत्ता खिसक जाये तो सत्ता के करप्शन पर सीधे अंगुली उठती है ।यानी कालाधन इस राजनीति को वो ऑक्सीजन देता है,जो ईमानदारी के पैसे से मुमकिन ही नहीं। और दागी वो औजार हैं, जो संसदीय राजनीति की तमाम कमियों को ढाल बनाकर राजनीति के मायने ही बदल देते हैं। तो क्या ये इसलिए है क्योंकि देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये । इसी तरह -बीते 10 बरस में विधानसभा चुनावो में कारपोरेट ने 3368 करोड टैक्स के तौर पर दिये। राज्यों ने कारपोरेट को योजनाओं के जरीये 50 लाख करोड़ से ज्यादा का लाभ दे दिया। तो राजनीति करप्ट है या देश में विकास के नाम पर जो भी काम कोई उघोगपति या कारपोरेट करना चाहता है मुनाफे के लिये उसे राजनीतिक सत्ता का आसरा लेना ही होता है। तो क्या राजनीतिक दल अगर करप्ट ना हो तो देश में विकास या इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जितना खनिज संसाधन लुटाया जाता है वह सही मायने में देश को विकसित कर दें। यह सवाल इसलिये क्योंकि जब कैशलेस देश का जिक्र हो रहा है तो बीते दस बरस में 10 बरस में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने 1039 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर पर लिये। क्षेत्रीय पार्टियों ने 2107 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर लिये। और असर इसी का है कि एनपीए यानी डुबा हुआ कर्ज लगातार बढ़ रहा है और मनमोहन सिंह के बाद प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद भी थमा नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो ये कि हाल में सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया । और अब विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे को अगर कांग्रेस उठा रही है, तो कांग्रेस का सच ये है कि कांग्रेस के कार्यकाल में करीब 1 लाख करोड़ का कॉरपोरेट कर्ज माफ किया गया था । और कॉरपोरेट या बड़े उद्योगपतियों को सरकार की छाया का लाभ कैसे मिलता है-इसका पता इस बात से भी लग सकता है कि कालेधन पर विदेशी बैंकों के 627 खाताधारकों में इक्का दुक्का को छोड़कर आज तक सबके नाम सामने नहीं आए। और नाम सामने आने चाहिये इसके लिये अब राहुल गांधी कहते है नाम क्यों नहीं बताते और जब मनमोहन सिंह की सत्ता थी तो बीजेपी पूछती थी मनमोहन सिंह नाम क्यों नहीं बताते। तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के सामने कैसे हर भ्रष्टाचार छोटा है ये अमेरिकी की नामी सर्वे कंपनी आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया तो दुनिया के 25 देशो के सामने मुख्य मुद्दा हो, कौन सा इसे लेकर किया गया ।भारत में नोटबंदी से एन पहले 25 अक्टूबर से 4 नवंबर तक जो सर्वे किया गया। उसमें सामने यही आया कि अमेरिका के सामने सबसे बडा मुद्दा आतंकवाद का है। रुस के सामने सबसे बडा मुद्दा गरीबी और समाजिक असमानता है। चीन के सामने सबसे बडा मुद्दा पर्यावरण का है। फ्रांस के सामने सबसे बड़ा मुद्दा रोजगार का है। लेकिन भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। और इस सर्वे में ये साफ तौर पर उभरा कि भारत के लोग आंतक, गरीबी,हेल्थ, शिक्षा या फिर अपराध से भी उपर पॉलिटिकल करप्शन को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। सर्वे के मुताबिक 46 फिसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं। तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि राजनीति से बडा सांगठनिक अपराध और कोई नहीं है। या फिर राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगते ही कानून-व्यवस्था कोई मायने नहीं रखता। या राजनीति से बड़ा रोजगार और कोई नहीं है। क्योंकि मोदी सरकार ही जिस कैशलेस व्यवस्था की दिशा में देश को ले जाना चाह रही है उसमें कोई राजनीतिक दल कहने को तैयार नहीं है कि अब कैश से एक पैसा भी चंदा नहीं लिया जायेगा और चंदा देने वाले को राजनीतिक सत्ता कोई लाभ नहीं देगी ।तो क्या 30 दिसंबर को देश अफसल साबित होगा ? सवाल ना तो किसी चौराहे का है ना ही पीएम के वचन का। सवाल है कि आखिर 30 दिसंबर के बाद देश के सामने रास्ता होगा क्या। क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर जादू की छड़ी से बनता नहीं है। और नोट छापने से लेकर कैशलेस देश की जो परिभाषा बीते 36 दिनो से गढ़ी जा रही है, उसके भीतर का सच यही है कि मनरेगा से लेकर देशभर के दिहाड़ी मजदूर जिनकी तादाद 27 करोड पार की है उनकी हथेली खाली है। पेट खाली हो चला है। तीन करोड़ से ज्यादा छात्र जो घर छोड़ हॉस्टल या शहरों में कमरे लेकर पढ़ाई करते है उनकी जिन्दगी किताब छोड़ बैंक की कतारों में जा सिमटी है। मिड-डे मील की खिचड़ी भी अब गाव दर गांव कम हो रही है। और दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे भारत की तादाद जो 19 करोड़ की है । अब इस कतार में 11 करोड़ से ज्यादा लोगों की तादाद शामिल हो चुकी है। गुरुद्वारों के लंगर में बीते 35 दिनो में तीस फीसदी का इजाफा हो चुका है । यानी आगरा मे गजक बनाने वाला हों या गया के तिलकुट बनाने वाले या फिर कानपुर में चमडे का काम हो या सोलापुर या सूरत में सूती कपडे का काम । ठप हर काम पड़ा है। पं बंगाल समेत नार्थ इस्ट में जूट का छिटपुट काम भी ठप है और असम के चाय बगानो से मजदूरो से पहले अब ठेकेदार और बगान मालिकही मजदूरों को भुगतान के डर से भाग रहे हैं। तो सवाल ये नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद क्या कोई जादू की छड़ी काम करने लगेगी। सवाल ये है कि जिस स्थिति में देश नोटबंदी के बाद आ खड़ा हो गया है, उसमें अब रास्ता है कौन सा। क्योंकि नोटो की मांग पूरी ना कर पाने के हालात कैशलेस का राग जप रहे हैं। तो दूसरी तरफ 65 फिसदी हिन्दुस्तान में मोबाईल-इंटरनेट-बिजली संकट है तो कैशलेस कैसे होगा। और एक कतार में हर नेता के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी का नोटबंदी का निर्णय है लेकिन रास्ता किसी के पास नहीं है। और ये कोई अब समझने को तैयार नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद पीएम नहीं देश भी फेल होगा। लेकिन राजनीतिक बिसात आरोपों की है तो निर्णय भी अब घोटाले के अक्स में देखा जा रहा है। तो वाकई हालात बिगड़े हैं। या बिगड रहे हैं। तो कोई भी कह सकता है तब 30 दिसंबर के बाद रास्ता होना क्या चाहिये। क्योंकि सवाल ना तो देश के सब्र में रहने का है ना ही एक निर्णय के असफल होने का। सवाल है कि अब निर्णय कोई भी सरकार क्या लेगी। क्योंकि नोटों के छपने का इंतजार रास्ता नहीं है। कैशलेस होने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने तक के वक्त का इंतजार रास्ता नहीं है। बैंकिंग सर्विस के जरिये आमजन तक रोटी की व्यवस्था कराने की सोच संभव नहीं है। -लोगों की न्यूनतम जरुरतों को सरकार हाथ में ले नहीं सकती। शहरी गरीबो के लिये सरकार के पास काम नहीं है। और फैसले पर यू टर्न तो लिया ही नहीं जा सकता। अन्यथा पूरी इकनॉमी ही ध्वस्त हो जायेगी। तो क्या पहली बार देश उस मुहाने की तरफ जा रहा है जहा आने वाले वक्त में राजनीतिक सत्ता को ही बांधने की व्यवस्था राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर कैसे हो अब बहस इसपर शुरु होगी। क्योंकि चुनावों की जीत-हार से कहीं आगे के हालात में देश फंस रहा है और असमंजस के हालात किसी भी देश को आगे नही ले जाते इसे तो हर कोई जानता समझता है। तो दो हालातों को समझना जरुरी है। पहला ढहती भारतीय व्यवस्था। दूसरी ढहती व्यवस्था के अक्स पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को जनता की राय मान ली जाये। तो दोनों स्थिति त्रासदीदायक है क्योंकि एक तरफ जिस मनरेगा के आसरे देश के साढ पांच करोड़ परिवारों के पेट भरने की व्यवस्था 15 बरस पहले हुई उसका मौजूदा सच यही है कि नोटबंदी ने मनरेगा मजदूरों की रीढ़ तोड़ दी है। आलम ये है कि मनरेगा के तहत अक्टूबर के मुकाबले नवंबर में 23 फीसदी रोजगार घट गया। और पिछले साल नवंबर की तुलना में तो इस बार मनरेगा में 55 फिसदी रोजगार कम रहा। और ये हाल अभी का है और इससे पहले का मनरेगा का सच ये था कि वित्तीय साल 2015-16 में कुल 5.35 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की लेकिन केवल 4.82 करोड़ परिवारों को ही रोजगार दिया जा सका यानी 9.9 फीसद परिवारों को मांग के बावजूद रोजगार नहीं हासिल हुआ। और ये रोजगार भी सिर्फ 100 दिन के लिए था । और अब हालात और बिगड़े हैं क्योंकि पैसा नहीं है। तो दो सवाल सीधे हैं कि देश के करोडो मजदूरों के पास अगर काम ही नहीं होगा तो वो जाएंगे कहां ? और अगर काम बिना खाली पेट सरीखे हालात बने तो क्या आने वाले दिनों में अराजकता का माहौल नहीं बनेगा? जवाब कम से कम सरकार के पास नहीं है अलबत्ता इंतजार चुनाव का ही हर कोई करने लगा है। क्योंकि देश चौराहे पर तो खड़ा है। एक तरफ नोटबंदी पर ईमानदारी के दावे । दूसरी तरफ नोटबंदी से परेशान कतार में खडा देश । तीसरी तरफ संसद के भीतर बाहर घोटाले की तर्ज पर नोटबंदी को देखने मानने पर हंगामा। और चौथी तरफ पांच राज्यों के विधानसभा की उल्टी गिनती। और अब सवाल ये कि क्या यूपी, उत्तराखंड, पंजाब , गोवा और मणिपुर में चुनाव मोदी के नोटबंदी के फैसले पर ही हो जायेगा। क्योंकि हालात बताते हैं कि खरगोश से भी तेज रफ्तार से देश चल पड़े तो भी अप्रैल बीत जायेगा। और चुनाव आयोग संकेत दे रहा है कि चुनाव फरवरी में ही निपट जायेंगे। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बडा जुआ या कहें दांव पर ही देश चुनाव में फैसला करेगा। यानी ईमानदारी का राग सही या गलत । भ्रष्टाचार राजनीति का ही पालापोसा बच्चा है या नहीं। नोटबंदी से क्रोनी कैपटिलिज्म की जमीन खत्म हो जायेगी या नहीं। नोट बदलने से ब्लैक-मनी खत्म हो जायेगी या नहीं। या फिर चुनाव की हार जीत से गरीब देश फिर हार जायेगा। यानी पहली बार देश की इकनॉमी से राजनीतिक खिलवाड़ हो रहा है और आज संसद तो कल विधानसभा चुनाव इसकी बिसात के प्यादा साबित होंगे। और परेशान देश में जीत उसी राजनीति की होगी जिसने देश को खोखला भी बनाया और खोखले देश को ईमानदारी से भरने का राग भी अलापा। पहले सिस्टम करप्ट था अब करप्शन ही सिस्टम तो नहीं हो चला ? वेल्लूर 24 करोड़ तो दिल्ली 15 करोड़ 65 लाख। चेन्नई 10 करोड़ तो चित्रदुर्ग 5 करोड़ 70 लाख। गोवा डेढ़ करोड़ और उसके बाद मुंबई से लेकर कोलकाता और जयपुर से लेकर पुणे तक और गाजियाबाद से लेकर गपडगांव यानी गुरुग्राम तक लाखों के नये नोट जब्त किये गये हैं। और देश के सिर्फ 16 हीनहीं बल्कि 32 जगहों से जो अवैध नये नोटों को पकड़ने का सिलसिला जारी है या कहे 500 और 2000 के नये नोट निकल कर सामने आये हैं, उसमें सवाल यही बड़ा है कि पकड़ने वालों की पीठ थपथपायी जाये या फिर नोट पहुंचाने वालों को सजा दी जाये। संयोग से जिन्होने नोट पहुंचाये और जिन्होंने नोट पकड़े दोनों ही सरकारी मुलाजिम हैं। या कहें उसी सिस्टम का हिस्सा है जिस सिस्टम पर भरोसा कर देश को कैशलेस बनाकर बैकिंग सर्विस से जोडकर करप्शन मुक्त या कालाधन मुक्त होने का सपना देखा दिखाया जा रहा है। तो क्या ये वाकई सपना है। क्योंकि नोटबंदी से पहले जो सिस्टम था वही करप्ट था और नोटबंदी केबाद जिस साफ सिस्टम की वकालत की जा रही है उसी में करप्शन है और बैंकिंग सर्विस में भ्रष्टाचार है, इसे पीएमओ भी अगर मान रहा है और उसे स्टिंग करानेकी जरुरत पड़ रही है तो देश के तीन सच से आंखे किसी को नहीं मूंदनी चाहिये। पहला, सिस्टम ठीक तभी होगा जब देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा। दूसरा, इन्फ्रास्ट्रक्चर तभी होगा जब जनता सिस्टम का हिस्सा होगी। तीसरा, जनता सिस्टम में शामिल तभी होगी जब सत्ता जनता के बीच होगी। और ध्यान दें तो अभी तक सत्ता का मिजाज जनता को सरकार के रहमोकरम पर रखने वाला है। यानी देश का किसान मानामाल नहीं हो सकता। देश का मजदूर दो जून के लिये भटकना छोड़ नहीं सकता। 70 करोड़ की आबादी के लिये सरकार के पास सिर्फ मदद या राहत पैकेज है जिसे वही सरकारी कर्मचारी या संस्थान पहुंचाते है, जो करप्ट है। तो फिर नोटबंदी के बाद सिस्टम का दायरा जब बैंकिंग सर्विस और तकनीक पर आ टिका है और नोटों के उत्पादन से ज्यादा नोटों की मांग है तो फिर सिस्टम को और ज्यादा करप्ट होने से कौन सा सिस्टम रोक पायेगा। क्योंकि नोटबंदी से पहले सिस्टम करप्ट था। नोटबंदी के बाद करप्शन ही सिस्टम हो रहा है। क्योंकि देश के एक लाख तीस हजार बैंक शाखाओं में से पांच सौ बैंकों में स्टिंग और किसी ने नहीं पीएमओ ने कराया। और खबर आ गई कि जहां जहां स्टिंग हुआ वहां वहां गड़बड़ी हुई है। तो अब उन्हें बख्शा नहीं जायेगा। यानी जो भ्रष्टाचार होना नहीं चाहिये था, वह भ्रष्टाचार देश की सफाई के लिये उठाये गये सबसे बडे कदम के दौर में वही बैक कर रहा है, जिस बैंकिंग सर्विस पर सरकार को भरोसा है कि आने वाले वक्त में यही तरीका देश को बचा सकता है । यानी भ्रष्टाचार खत्म कैसे हो इसका उपाय किसी के पास नहीं। तो क्या देश स्टिंग आपरेशन के आसरे चल सकता है। ये सवाल कल भी था और आज भी है। कल केजरीवाल के लिये ये हथकंडा था और प्रधानमंत्री मोदी के लिये। तो ये मान भी लिया जाये कि हर जगह कैमरा लगा होगा । हर जगह पर सीधे सत्ता नजर रखेगी । यानी कोई भ्रष्ट ना हो या बैक इस तरह कैश ना बांटे जैसा स्टिंग ऑपरेशन में नजर आया होगा । तो अगला सवाल है कि कैशलेस करप्शन पर रोक के लिये कौन सा स्टिंग होगा । क्योंकि जनता का ही बैंकों में जमा रुपया कारपोरेट को बांटा गया। जो कैश नहीं चैक या खातों में ट्रांसफऱ कर दिखाया जाता है और उसी कड़ी में नॉन परफोर्मिंग एसेट यानी एनपीए की राशि बीते 10 बरस में 10 लाख करोड़ से ज्यादा की हो चुकी है। तो क्या जिन बैंक मैनेजरों ने जिन राजनेताओं के कहने पर जिन कारपोरेट को करोड़ों रुपया कर्ज दिया । और जो कारपोरेट जिन राजनेताओ के कंघे पर सवार होकर बैंकों को कर्ज की रकम नहीं लौटा रहे हैं, क्या वह करप्शन नहीं है। और है तो उसके लिये कौन सा कानून किस तरह देश में काम कर रहा है। यानी मौजूदा वक्त में भी करीब सवा लाख बैंकों में क्या हो रहा है-इसका सरकार को कुछ पता नहीं या कहें कि सरकार चाहकर भी कुछ कर नहीं सकती। और अगर सरकार ये सोच रही है कि आने वाले वक्त में बैकिंग सर्विस के दायरे में समूचा दगेश होगा और बैकिंग सर्विस पर निगरानी रखकर उक्नामी के करप्शन को खत्म किया जा सकता है। तो ये नजरिया कब कैसे पूरा होगा कोई नही जानता। क्योंकि फिलहाल 97 बैंकों की 1लाख 30 हजार शाखायें देश भर में हैं और 10 बरस पहले यानी 2005 में 284 बैंकों की 70373 शाखायें देश भर में थीं। यानी दस बरस में करीब दुगनी शाखायें देश भर में खुलीं। लेकिन देश का सच यही है कि 93 फिसदी ग्रामीण भारत में बैंक है ही नहीं । शहरो में प्रति बैक शाखा औसतन 10 हजार लोग हैं। और मौजूदा वक्त में प्रतिदिन नोट बांटने की कैपिसिटी प्रति शाखा सिर्फ 500 लोग है। यानी मौजूदा सिस्टम को ही पटरी पर लाने के लिये जो इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये उसमें कई गुना सुधार की जरुरकत है। और ये जरुरत कितने दिनों में कैसे पूरी होगी कोई नहीं जानता। तो अगला सवाल ये हो सकता है कि क्या स्टिंग ऑपरेशन सिर्फ ये बताने के लिये है कि सरकार काम कर रही है । क्योंकि सरकार को बखूबी मालूम है कि उसके पास वक्त सिर्फ 30 दिसंबर तक का है,क्योंकि फिर दांव पर प्रधानमंत्री मोदी का वचन होगा। ऐसे में अगर पीएम मोदी संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे और अगर राहुल गांधी ही संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे। जाहिर है बैकिंग सर्विस,तकनालाजी और कैशलेस पेमेंट के जरीये कालेधन, भ्रष्टाचार पर नकेल से आगे पीएम क्या कह सकते हैं। और राहुल गांधी नये हालातो में इन्ही सब से पैदा हुये मुश्किल हालात से आगे क्या कहेगें। यूं जब रैलियो में पीएम के तेवर के अक्स में संसद में मोदी के कहने के इंतजार करें तो मोदी सीधे देश के बिगडे हालात के लिये नेहरु गांधी परिवार को कटघरे में खडा कर सकते हैं। भ्रष्टाचार और कालेधन को आश्रय देने वाली व्यवस्था के लिये गांधी परिवार को सबसे भ्रष्ट बता सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी मुश्किल हालात में प्रदानमंत्री मोदी को नीरो करार दे सकते हैं। जो देश के जलने पर ईमानदारी की बांसुरी बजा रहे हैं । क्योंकि देश के राजनेताओ की भाषा तो फिलहाल यही हो चली है । लेकिन सवाल यह भी है कि संसद में क्या कोई नेता ये कहने की हिम्मत दिखा गा कि संसद ही जिस जमीन पर खड़ी है और उसमें बैठकर देश के नाम संबोधन का जो जुमला हर राजनीतिक दल गढ रहा है क्या उस जमीन से जमता का वाकई कुछ लेना देना है । यानी सवाल सिर्फ प्रदानमंत्री मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है । सवाल है कि बीते 34 दिनो में क्या किसे ने इमानदारी से संसद में बताया कि उनकी राजनीतिक पार्टी चलती कैसे है । कारपोरेट को अरबो रुपये की टैक्स रियायत क्यो दी जाती है । और गरीबो के लिये सिर्फ सरकारी पैकेज ही क्यों चलता -दौडता है ।यानी जिस कालेधन और भ्रष्टाचार की खोज नोटबंदी के बाद कतारो में खडे लोगो के मुशकिलो में टटोला जा रहा है उसके भीतर का सच यही है कि राजनीतिक व्यवस्था ने खुद को जनता के प्रति जिम्मेदार माना ही नहीं है । कारपोरेट या निजी पूंजी की इक्नामी का इन्फ्रास्ट्रक्रचर ही देश चला रहा है । सत्ता पूंजी के आसरे व्यवस्था चलाती है ना कि मानव-संसाधन के आसरे । यानी भ्रष्टाचार कौन करता है ये बताने के लिये किसी सिस्टम की जरुर नहीं है और कालाधन किसके पास है ये जानने के लिये बैंकिंग सर्विस की जरुरत भी नहीं है । जरुरत सिर्फ इस सच के साथ खड़े होने की है कि कानून और संवैधानिक संस्धान अपनी जगह अपना काम करे । जो है नहीं तो करप्शन ही सिस्टम कैसे हो जाता है ये कहां किसी से छुपा है । "5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा " वो ब्लॉग जिसे आप रोजाना पढना,शेयर करना और कोमेंट करना चाहेंगे ! link -www.pitamberduttsharma.blogspot.com मोबाईल न. + 9414657511

Friday, December 9, 2016

Disabled man spreading message of 'Beti bachao Beti padhao'

प्रिय मित्रो !! मेरी होनहार बेटी सुकृति शर्मा ,जो आजकल "पत्रिका-राजस्थान"के नए शुरू होने जा रहे टीवी चेनेल में प्रोड्यूसर एवम एंकर के पद पर जयपुर में कार्यरत है , ने ये बड़ा ही शानदार प्रोग्राम बनाया है ! इसे आप भी देखिये और अपने मित्रों को भी दिखाइए ! अपना आशिर्वाद स्वरूप कॉमेंट भी लिखिए ! सधन्यवाद !- आपका अपना , पीताम्बर दत्त शर्मा !!

"5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा " वो ब्लॉग जिसे आप रोजाना पढना,शेयर करना और कोमेंट करना चाहेंगे ! link -www.pitamberduttsharma.blogspot.com मोबाईल न. + 9414657511




Wednesday, December 7, 2016

हर आंख में एक सपना है...!!!

पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर, रोजगार बात इससे आगे तो देश में कभी बढी ही नहीं । नेहरु से लेकर मोदी के दौर में यीह सवाल देश में रेगते रहे। अंतर सिर्फ इतना आया की आजादी के वक्त 30 करोड में 27 करोड लोगो के सामने यही सवाल मुहं बाये खडे थे और 2016 में सवा सौ करोड के देश में 80 करोड नागरिको के सामने यही सवाल है । तो ये सवाल आपके जहन में उठ सकता है जब हालात जस के तस है तो किसी को तो इसे बदलना ही होगा । लेकिन इस बदलने की सोच से पहले ये भी समझ लें वाकई जिस न्यूनत की लडाई 1947 में लडी जा रही थी और 2016 में उसी आवाज को नये सीरे से उठाया जा रहा है उसके भीतर का सच है कया । सच यही है कि 80 लाख करोड से ज्यादा का मुनाफा आज की तारिख में उसी पानी, बिजली,खाना, शिक्षा, इलाज घर और रोजगार दिलाने के नाम पर प्राईवेट कंपनियो के टर्न ओवर का हिस्सा बन जाता है ।

यानी जो सवाल संसद से सडक तक हर किसी को परेशान किये हुये है कि क्या वाकई देश बदल रहा है या देश बदल जायेगा । उसके भीतर का मजमून यही कहता है कि 150 अरब से ज्यादा बोतलबंद पानी का बाजार है । 3 हजार अरब से ज्यादा का खनन-बिजली उत्पादन का बाजार है । 500 अरब से ज्यादा का इलाज का बाजार है । ढाई हजार अरब का घर यानी रियल इस्टेट का बाजार है ।सवा लाख करोड से ज्यादा का शिक्षा का बाजार है । अब आपके जहन में ये सवाल खडा हो सकता है कि फिर चुनी हुई सत्ता या सरकारे काम क्या करती है । क्योकि नोटबंदी के फैसले से आम आदमी कतार में है लेकिन पूंजी वाला कोई कतार में क्यो नदर नहीं आ रहा है और देश में बहस इसी में जा सिमटी है कि उत्पादन गिर जायेगा । जीडीपी नीचे चली जायेगी । रोजगार का संकट आ जायेगा । तो अगला सवाल यी है कि जब देश में समूची व्यवस्था ही पूंजी पर टिकी है । यानी हर न्यूनतम जरुरत के लिये जेब में न्यूनतम पूंजी भी होनी चाहिये और उसे जुगाडने में ही देश के 80 फिसदी हिन्दुस्तान की जिन्दगी जब इसी में खप जाती है तो फिर नोटबंदी के बाद लाइन में खडे होकर अगर ये सपना जगाया गया है कि अच्छे दिन आयेगें तो कतारो में खडा कोई कैसे कहे कि जो हो रहा है गलत हो रहा है ।

लेकिन क्या सपनो की कतार में खडे होकर 30 दिसबंर के बाद वाकई सुनहरी सुबह होगी । तो आईये जरा इसे टटोल लें । क्योकि 70 बरस में कोई बदलाव आया नहीं और 70 बरस बाद बदलाव का सपना देखा जा रहा है तो इस बीच में खडी जनता क्या सोचे । आदिवासी , दलित, महिला, किसान , मुस्लिम ,बेरोजगार । संविधान में जिक्र सभी का है । संविधान मे सभी को बराबर का हक भी है । लेकिन संविधान की शपथ लेने के बाद जब राजनीतिक सत्ता के हाथ में देश की लगाम होती है तो हर कोई आदिवाली हो या दलित । महिला हो या मुस्लिम । किसान हो या बेरोजगारो की कतार । सभी से आंख क्यो और कैसे मूंद लेता है । और चुनाव दर चुनाव वोटबैक के लिये राजनीतिक दल इन्हे एकजूट दिखाते बताते जरुर है लेकिन हर तबका अलग होकर भी ना एकजूट हो पाता है ना ही कभी मुख्यधारा में जुड पाता है । और इन सभी की तादाद मिला तो 95 फिसदी तो यही है ।मुख्यधारा का मतलब महज 5 फिसदी है । यानी जो सपने आजादी के बाद से देश को राजनीतिक सत्ताओ ने दिखाये क्या उसके भीतर का सच सिवाय देश को लूटने के अलावे कुछ नहीं रहा । क्योकि किसानो की तादाद 18 करोड बढ गई और खेती की जमीन 12 पिसदी कम हो गई । मुस्लिमो की तादाद साझे तीन करोड से 17 करोड हो गई लेकिन हालात बदतर हुये । दलित भी 3 करोड से 20 करोड पार कर गये । लेकिन जिस इक्नामी के आसरे 1947 में शुरुआत हुई उसी इक्नामी के आसरे 2016 में भी अगर देश चल रहा है तो फिर ये सवाल जायज है कि देश में किसी भी मुद्दे को कोई भी कैसे उठाये ।

समाधान निकल नहीं सकता जब तक पूंजी पर टिकी व्यवस्था को ही ना बदला जाये । यानी उत्पादन, रोजगार , नागरिको के हक और राजनीतिक व्यवस्था की लूट से लेकर मुनाफे के सिस्टम को पलटा ना जाये । तो क्या मोदी पूंजी पर टिकी व्यवस्था बदलने की सोचेगें । क्या पानी-बिजली-शिक्षा-हेल्थ से निजी क्षेत्र को पूरी तरह बेदखल कर सरकार जिम्मेदारी लेगी । यानी जो तबका कतार में है । जो तबका हासिये पर है । जो तबका निजी क्षेत्र से रोजगार पाकर जिन्दगी चला रहा है । उनकी जिन्दगी से इतर नोटबंदी को आधार कालेधन और आंतक पर नकेल कसने को बनाया गया । लेकिन भ्ष्ट्रचार, नकली नोट , आंतकी हमले भी अगर नोटबंदी के बाद सामने आये । तो क्या कहॉ जाये कि 70 बरस के दौर में पहली बार देश में सबसे बडा राजनीतिक जुआं सिर्फ यह सोच कर खेला गया कि इसके दायरे में हर वह तबका आ जायेगा जो परेशान है और कतार की परेशानी बडे सपने के सामने छोटी हो जायेगी । लेकिन ये रासता जा किधर रहा है । क्योकि इसी दौर में भ्,्ट्रचार और ब्लैक मनी का दामन साथ कैसे जुडा हुआ है ये बेगलूर में 4 करोड 70 लाख रुपये जब 2 कन्ट्रेकटर और सरकारी अधिकारी के पास से जब्त किये गये तो सभी के पास नये 2 हजार के नोट थे । वही मोहाली में तो दो हजार के नकली नोट जो करीब 42 लाख रुपये थे । वह पकड में आ गये । और गुजरात तो दो हजार रुपये के छपते ही 17 नवंबर को पोर्ट ट्रस्ट के दो अधिकारी के पास से दो लाख 90 हजार रुपये जब्त हुये ।

इन सबके बीच नगरोटा की आंतकी घटना ने भी ये सवाल खडा किया कि आंतकवाद क्या नोटबंदी के बावजूद अपने पैरो पर खडा है । यानी सवाल इतने सारे की हर जहन में वाकई ये सवाल ही है कि क्या वाकई 30 दिसबंर के बाद सबकुछ सामान्य हो जायेगा । या फिर देश में जिन चार जगहो पर नोट छपते है । -नासिक, देवास, सलबोनी , मैसूर । इन जगहो में किसी भी रफ्तार से नोट छापे जाये अगर इनकी कैपेसिटी ही हर वर्ष 16 अरब छापने की है । और नोटबंदी से करीब 22अरब नोट बंद हुये है . तो फिर हालात लंबे खिचेगें । या फिर दो की जगह चार शिफ्ट में भी काम शुरु हो जाये तो फिर जिसने नोट निकले रहे है और जितने नोट लोगो को मिल रहे है । सबकुछ सामान्य हालात में आने में कितने दिन लगेगें । ये अब भी दूर की गोटी है ।

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Friday, December 2, 2016

"मोदी जी से ,पूछे हर दिहाड़ी करनेवाला ,मेरा धन क्यों काला "?? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक-विचारक) मो.न.- +9414657511.

परम् भक्त सूरदास जी के अनुसार , यशोमति मैया से एक बार कान्हा ने पूछा था कि हे मैया मैं काला क्यों हूँ ,तो मैया ने बड़े प्यार से उन्हें समझाया था !ठीक उसी तरह आज हर भारत वासी हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री जी के नोटबन्दी कार्यक्रम का समर्थन करते हुए ,बड़ी विनम्रता से ये भी पूछना चाह रहा है कि मेरा मेहनत से कमाया हुआ धन "काला" कैसे हो गया ? कौन जिम्मेदार है इस के लिए?क्या मैं अकेला जिम्मेदार हूँ ? अगर हाँ तो मुझे आर्थिक और शारीरिक दण्ड अवश्य दिया जाए !लेकिन अगर इस सबके पीछे कंही हमारे पूर्व भृष्ट शासकों और  निक्कमी व्यवस्था  भी जिम्मेदार है तो हर उस व्यक्ति को माफ़ी मिलनी ही चाहिए जो चाहे-अनचाहे इस भ्रष्ट - व्यवस्था का हिस्सा बन गया ! उसे इतनी सज़ा ही बहुत है जितनी उसे लाइनों में लगकर खड़े होने से,और अस्पतालों में धक्के खाकर मिल चुकी है !
                         उसकी गलती केवल ये है कि वो अपनी मेहनत से कमाए हुए धन को भारत के क़ानून अनुसार आयकर विभाग को बता नहीं पाया या बैंकों में     समयानुसार जमा नहीं करवा पाया  !लेकिन आपके आदेशानुसार मोदी जी आज हर मेहनतकश ने अपनी सारी पूँजी बैंकों में जमा करवादी है !अब आपका भी ये फ़र्ज़ बनता है कि आप दस लाख तक के आदमी को आम माफ़ी प्रदान करें !आज के जमाने में दस लाख कुछ भी नहीं होते जी ! आप बड़े ही दयालु भी हो मोदी जी !मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी ये "जनहित-याचिका"पर गौर करके निर्णय सुनोगे ! 
                        इस सबके साथ मैं ये भी कहना चाहता हूँ की आज विपक्ष जी बेशर्मी से देश को नुक्सान पहुंचा रहा है जनता उसको भी मुंह तोड़ जवाब अवश्य देगी ! आने वाले काम से काम दस साल आपको ही देश की बागडोर सौंपना चाहेगी !क्योंकि आप जिस एकाग्रता से देश की सेवा कर रहे हैं जनता आपकी आभारी भी रहेगी !
                       सधन्यवाद !
                                           आपका 
                                               समर्थक-कार्यकर्ता 
"5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा "
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...