Saturday, January 9, 2016

-पाकिस्तान के भारतबीच एलओसी का सच........!!!!!

लश्कर-ए-तोएबा , जैश-ए मोहमम्द, हिजबुल मुज्जाहिद्दीन ,हरकत-उ मुज्जाहिद्दीन , पाकिसातन तालिबान और इस फेरहिस्त में 19 से ज्यादा और नाम । इन नामो से जुडे दफ्तर की संख्या 127 । जो कि पीओके में नहीं बल्कि कराची, मुल्तान, बहावलपुर, लाहौर और रावलपिडी तक में । जबकि ट्रेनिंग सेंटर मुज्जफराबाद और मीरपुर तक में । यानी पाकिस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक आंतकवादियो की मौजूदगी । भारत के लिये हर नाम आंतक का खौफ पैदा करने वाला लेकिन पाकिस्तान के लिये पाकिस्तान के भीतर आंतक के इन चेहरोपर कोई बंदिश नहीं है । तो सबसे बडा सवाल यही है कि जिस आतंकवाद पर नकेल कसने के लिये भारत पाकिसातन से बार बार बातचीत करता है जब वहीं अपनी जमीन पर आतंक को आतंक नहीं मानता तो पठानकोट हमले के बाद ऐसा माहौल क्यो बनाया गया कि पाकिस्तान पहली बार पठानकोट के दोषियो के खिलाफ कारर्वाई कर रहा है । तो सवाल है कि पहली बार किसी आंतकी हमले को लेकर भारत ने यह दिखला दिया कि पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करें नही तो उसका रुख कडा हो जायेगा । या फिर पठानकोट हमले को ही बातचीत का आधार बनाया जा रहा है । क्योकि मोदी सरकार भी इस सच को समझती है कि भारत के लिये जो आंतकी संगठन है वह पाकिस्तान की राज्यनीति का हिस्सा रहे है । और नवाज शरीफ सरकार भी इस सच को समझ रही है कि आंतकवाद उसके घर में सामाजिक-आर्थिक हालात की उपज भी है और सेना -आईएसआई की पालेसी का हिस्सा भी । तो फिर पठानकोट हमले पर कार्रवाई के साथ वह अपने दाग को छुपा सकती है ।क्योंकि सभी आंतकी संगठनो ने खुलकर कश्मीर को अपने जेहाद का हिस्सा भी बनाया हुआ है । और कश्मीर से हमले निकलकर अब पंजाब के मैदानी हिस्सो में पहुंचे है तो फिर पाकिसातन से बातचीत के दायरे में आंतकवाद और कश्मीर से आगे निकलना दोनो सत्ता की जरुरत बन चुकी है । तो सवाल है कि क्या पठानकोट हमले पर तुरंत कार्र्वाई दिखा कर आंतक से बचने का रास्ता भी पाकिस्तान को मिल रहा है । और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी संवाद बनाकार संवाद तोडने से अब बचना चाहते है ।खासकर लाहौर यात्रा के बाद । यानी करगिल के बाद से ही बातचीत के जो सवाल बार बार हर आंतकी हमले के बाद उलझ जाते थे उसमे पहली बार मौदी की लाहौर यात्रा और हफ्ते भर के भीतर ही पठानकोट हमले ने दोनो देशो को इस कश्मकश से उबार दिया कि हमलो को खारिज कर आगे बढा जाये तो आंतकी संगठनों के हमलबेमानी साबित हो जायेगें । ध्यान दीजिये तो लगातार दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारो की बातचीत और नवाज शरीफ - मोदी की बातचीत संकेत यही दे रही है कि पठानकोट हमला सिर्फ बातचीत को बंद कराने के लिये किया गया । तो सवाल है कि लश्कर-ए-तोएबा हो या जैश -ए मोहम्मद या फिर कश्मीर से निकल कर पाकिसातन की जमीन पर पनाह लिये हुये सैय्यद सलाउद्दीन का संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन । इनका अतीत बताता है कि सत्ता की कमजोरी का लाभ आंतकवादी संगठनो को नहीं मिला बल्कि हर सत्ता ने अपनी कमजोरी को सौदेबाजी की ताकत में बदलने के लिये आंतकवादी संगठनो की पनाह ली । इसका बेहतरीन उदाहरण तो जैश-ए-मोहम्मद के अजहर मसूद ही है । जो पठानकोट हमले को लेकर कटघरे में है । लेकिन पाकिसातन के भीतर का सच यह है कि अजहर मसूद पर दिसबंर 2003 में मुशर्रफ पर हमला करने का दोषी माना । लेकिन मुशर्रफ की सरकार ही अजहर मसूद का कुछ नहीं बिगाड सकी । सिवाय इसके कि जनवरी 2002में जब जैश पर प्रतिबंध लगा तो उसने अपना नाम बदल कर खुदम-उल-इस्लाम कर लिया । इतना ही नहीं अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या के इल्जाम में भी अमेरिका ने अजहर मसूद को अपने कानून के तहत तलब किया । इंटरपोल ने मसूद की गिरफ्तरी पर जोर दिया । लेकिन इन सबसे इतर मसूद की खुली आवाजाहीकराची के बिनौरी मसजिद में भी रही और बहावलपुर में जैश के हेडक्वार्टर में भी रही । दिखावे के तौर पर जिस तरह लशकर को छोड जमात-उल-दावा को हाफिज सईद ने ढाल बनाया वैसे ही अजहर मसूद ने खुदम-उल -इस्लाम के साथ साथ जमायत-उल -अंसार और जमात-उल -फुरका या फिर हिजबुल तहरीर को भी ढाल बनाया

। यानी आतंकवाद को लेकर जो चिंता भारत जता रहा है या फिर मोदी सरकार पठानकोट हमले में ही पाकिस्तान की कार्रवाई को सीमित कर अपनी जीत दिखाने पर अडे है उसकी सबसे बडी त्रासदी तो यही है कि आंतकवाद की परिभाषा लाइन आफ कन्ट्रोल पार करते ही जब बदल जाती है तो सवाल संवाद का नहीं बल्कि
अतीत के उन रास्तो को भी टटोलना होगा । जो कभी इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बनाया , या फिर फिर वाजपेयी ने एलओसी पर एक लाख सैनिकों की तैनाती कर मुशर्रफ के गरुर को तोड़ा । इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि पाकिसातन में आतंक के पनपने की बडी वजह गरीबी-मुफलिसी है । और भारत
में आतंकवादियों की घुसपैठ की बडी वजह भ्रष्ट्रचार और आतंकवाद को लेकर राज्य-केन्द्र के बीच कोई तालमेल का ना होना है । एक तरफ पाकिस्तान की आंतकवाद पर तैयार रिपोर्ट ‘प्रोबिंग माइंडसेट आफ टेररइज्म’ के अनुसार करीब दो लाख परिवार आतंक की फैक्ट्री के हिस्से है । इनमें 90 फीसदी गरीब
परिवार है । इन नब्बे फिसद में में से 60 फिसद सीधे मस्जिदों से जुड़े हैं । आतंक का आधार इस्लाम से जोडा गया है । और इस्लाम के नाम पर इंसाफ का सवाल हिंसा से कहीं ज्यादा व्यापक और असरदार है । यानी आंतक या जेहाद के नाम पर हिंसा इस्लाम के इंसाफ के आगे कोई मायने नहीं रखता । फिर पाकिस्तान के
भीतर के सामाजिक ढांचे में उन लडकों या युवाओं का रौब उनके अपने गांव या समाज में बाकियों की तुलना में ज्यादा हो जाता है जो किसी आतंकी संगठन से जुड जाता है । लेकिन समझना यह भी होगा कि पाकिस्तान में आंतकवादी संगठन किसी को नहीं कहा जाता है । जैश-ए-मोहम्मद या लश्कर-ए-तोएबा तक कट्टरवादी
इस्लामिक संगठन माने जाते है । जाहिर है ऐसे में हालात घुम-फिरकर सवाल भारत के आंतरिक सुरक्षा को लेकर ही उठेगें । और बीजेपी तो इजरायल को ही सुरक्षा के लिहाज से आदर्श मानती रही है तो फिर उस दिशा में वह बढ़ क्यों नहीं पा रही है । क्या संघीय ढांचा भारत में रुकावट है जो एनसीटीसी पर सहमति नहीं बना पाता । या फिर आंतकवाद से निपटना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी है । यानी नागरिकों की भूमिका सिर्फ चुनाव में सत्ता तय करने के बाद सिमट चुकी है । असल में भारत की मुश्किल यही है कि नागरिकों की कोई भूमिका सत्ता के दायरे में है ही नहीं । इसलिये सत्ता बदलने का सुकुन लोकतंत्र को जीना है और सत्ता के लिये वोट बैक बनना देश के लिये त्रासदी । इसलिये सच यही है कि भारत और पाकिस्तान कभी आपस में बात नहीं करते और
दोनों देशों की सत्ता कभी नहीं चाहती कि दोनो देशो की आवामों के बीच संवाद हो । बातचीत सत्ता करती है और बंधक आवाम बनती है । जिसकी पीठ पर सवारी कर सियासी बिसात बिछायी जाती है । और बातचीत के दायरे में आंतकवाद और कश्मीर का ही जिक्र कर उन भावनाओं को उभारा जाता है जिसके आसरे सत्ता को या तो
मजबूती मिलती है या फिर सत्ता पलटती है । फिर आंतकी घटनाओं के पन्नों को पलटे तो 1993 के मुबंई सिरियल ब्लास्ट के बाद पाकिस्तानी आतंकवाद की दस्तक 2000 में लालकिले पर हमले से होती है । और सच यह भी है कि जिस छोटे से दौर [ अप्रैल 1997-मार्च1998  ] में आई के गुजराल पीएम थे उस दौर में सबसे ज्यादा आवाजाही भारत और पाकिस्तान के नागरिकों की एक दूसरे के घर हुई । उस दौर में दोनो देशो के भीतर ना आईएसआई सक्रिय थी ना रां । तो कह सकते है कि गुजराल दोनो देशों के मिजाज से वाकिफ थे क्योकि ना सिर्फ उनका जन्म अविभाजित भारत के झेलम में हुआ और पढाई लाहौर में । बल्कि 1942 के राजनीतिक संघर्ष में जेल भी पाकिसातन की थी थी । लेकिन नये हालातो में गुजराल की सोच यह कहकर भी खारिज की जा सकती है कि  तब का दौर अलग था अब का दौर अलग है ।

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-01-2016) को "विवेकानन्द का चिंतन" (चर्चा अंक-2217) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    नववर्ष 2016 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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