Sunday, July 20, 2014

हमारे मित्र श्री संतोष गंगेले जी का आलेख आपके लिए प्रस्तुत है !!-" फिफ्थ पिल्लर करप्शन किल्लर "! ब्लॉग वो जिसे आपको रोज़ पढ़ना और अपने मित्रों संग बांटना भी चाहिए !!


आलेख:-'माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई धर्म नही है'

             मानव संस्कृति हमें इस बात की प्रेरणा देती है कि हमें अपने माता-पिता की अच्छाईओं को ग्रहण करना चाहिये तथा उनके बताये सदमार्ग पर चलना चाहिये ।  कोई भी माता-पिता अपनी संतान केलिए कोई भी गलत रास्ता नही दिखाती है । माता -पिता की सेवा से बड़ा कोई तीर्थ स्थान नही है न ही कोई अन्य धर्म हैं । जब हम अपने माता-पिता की सेवा करेगें तो हमारे अन्दर अपने आप धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार जागृत होगें । हम घर-परिवार व समाज में सम्मान जनक स्थान प्राप्त करेगें । जो संतान माता -पता के उचित बचनों जो  जीवन को सार्थक बनाने बाले है का पालन नहीं करते है वह अपना भबिष्य ख़राब तो करते है पारिवारिक संकट उठाते है एबं सामाजिक बहिष्कार सहते है।  इसलिए माता -पिता ,के उपदेश -वचनो को विना विचार किये ही स्वीकार कर लेना चाहिए। 

हमारी संस्कृति में माता-पिता का ऋण कोई संतान अदा नही कर पाती है लेकिन प्रत्येक संतान यही प्रयास करता है कि माता -पिता को हम अच्छी सेवा करें उन्हे सम्मान से जीने केलिए ऐसी व्यवस्था बनायें । जब तक संतान स्वंय माता-पिता  नही बनती है जब तक वह माता-पिता के दायित्य को नही समझ पाते हे । इसलिए आप देंखते व सुनते होगें कि प्रत्येक कन्या भगवान के समक्ष यहीं प्रार्थना करती हैं उपवास करती हे कि उसे अच्छा बर (पति-स्वामी ) मिलें । जब कन्या परिवारिक जीवन में प्रवेश करती है तो वह भगवान से दूसरी इच्छा मात्र संतान प्राप्त करने की या कहें कि मॉ होने केलिए प्रार्थना  करती है ।  प्रकृति या ईश्वर का बिधान है कि कोई भी व्यक्ति कितना ही गौरवशाली, स्वाभिमानी, उच्चपद पर पदासीन अधिकारी, राजा-महाराजा, नेता -अभिनेता, मजदूर-किसान सेना का जबान अपराधी होगा वह यदि मानव है या इंसानियत रखता है तो वह संतान से बिमुख नही हो पाता हे । संतान का प्यार व दुलार की तुलना किसी भी प्यार से नही की जा सकती है ।  संतान का मोह संसार का सबसे बड़ा मोह बताया गया है और बास्तविक रूप से होता ही है ।  जिस  व्यक्ति को  अपनी से स्नेह - प्यार नही है हम उसे सामाजिक प्राणी नही कह सकते है । प्रत्येक माता-पिता संतान केलिए कितने ही कष्ट उठाने को तैयार होते है । प्रत्येक दंपत्ति अपनी संतान केलिए दिन-रात उसके पालन पोषण में लगे रहते है । 

संतान के पालन - पोषण में  माता का सर्वाधिक कार्य होता है , मॉ संतान के प्रत्येक सुख-दुःख का ध्यान रखती है प्रत्येक गल्तियों को माफ करती है।  पिता को परिवार को संचालित करने केलिए आर्थिक बजट की व्यवस्था तथा भविष्य की व्यवस्था केलिए अपने कर्तव्य  कार्य मजूदरी मेहनत करना होती है । या हम इस प्रकार से कहें कि कोई परिवार बिना पति-पत्नी के नही चलता है. परिवार की परिभाषा ही पति-पत्नी से बनी है । इसलिए पत्नी का दायित्य है कि वह घर-गृहस्थी  का रख-रखाव, परिवारिक मर्यादायें, समाजिक सम्मान, नारी की लज्जा, इन सभी बातों को समझते हुये बाहन की तरह होती हैं. परिवार का मुखिया या पति तो  बाहन चलाने बाला या आर्थिक बोझ उठाने बाला होता है । इसलिए प्रत्येक माता-पिता का अपनी संतान को गर्भ धारण से ष्क्षिित करने तक या आत्म निर्भर बनाने तक क्या क्या नही करता हैं यह संतान सोच नही पाती है जब संतान वयस्क हो जाती है और स्वयं परिवारिक बंधन में बंध जाती है तब वह बास्तविक स्वरूप को समझ पाती है ।  यदि संतान अपने होष सम्भालने के साथ  ही माता-पिता के आर्दष पर चलने का प्रयास करें ,अच्छाईओं को ग्रहण करें, सदविचारों को गहण करें, धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करें, संत महापुरूषों के बताये मार्ग को अपनाये का प्रयास करें तो ऐसे बालक-बालिकायें या संतान समाज में ही नही राष्ट्र के उच्च षिखर तक पहुॅच जाती हैं ।   हमें माता -पिता  के अस्वस्थ्य होने या  बृध्द अवस्था होने किस तरह की सेवा करना चाहिये । हर माता-पिता  संतान की खुषी केलिए अन्तिम समय तक प्रयास करते रहते है । संतान का दायित्य बनता है कि वह जब तक माता-पिता स्वस्थ्य है उन्हे स्वतंत्र रूप से कार्य करने देना चाहिये उनके कार्यो में बाधा नही करना चायिहे उनके बताये रास्ता पर ही चलना चाहिये । लेकिन जब माता-पिता को किसी भी प्रकार से दुःख हो , कष्ट हो , कोई अचानक संकट आ जावें  या प्रकृतिक शारीरिक बीमारी हो तो उनकी सेवा में कोई कसर नही छोड़नी चाहिये ।  

माता जी हो या पिता जी उन्हे स्नेह व प्यार दें । उनके पास समय देकर उनकी सेवा करें ।  भोजन, पानी समय पर दें , दवा आदि की समय पर व्यवस्था करें तथा समय से दवा दें । स्वयं पुत्र को सेवा तो करना चाहिये साथ ही पुत्रबधू को सेवा में पूरी तरह से हाथ बटॉना चाहियें ।  हमारा तो यदि उद्देष्य है पुत्र से अधिक संस्कारित परिवारों में पुत्रबधू ही अपने सास-ससुर, माता-पिता की सेवा करती है ऐसी ही महिलायें दीर्धआयू व सौभाग्यवती रहती है । जो महिलायें अपने सास-ससुर की सेवा नही करती है या जो पुत्र-पुत्रियॉ अपने माता-पिता के साथ अन्याय या अत्याचार करती है वह हमेषा संकट व कष्ट उठाती है । 

आज आवश्यकता है, प्रत्येक परिवारों में मॉ-बाप की सेवा करने का । क्योकि बदलते समय में माता-पिता सर्वाधिक परेशानी  व संकटों से गुजर रहे है । जो संतान माता-पिता की सेवा नही करते है  उसका कारण मंदबुध्दि, विवेक की कमी , स्वयं के विवेक से कार्य न करते हुये चरित्रहीन पत्नी के बहकावें में आकर ही अपने माता-पिता को ठुकराते हैं । जब माता-पिता की आत्मा को कष्ट होगा , उन्हे संकट होगा तो हमें कैसें सुखी हो सकते है ? हमें  बार बार नही हजार बार इस बात पर ध्यान देना होगा कि यदि हमारी माता जी पिता जी ने हमें बचपन से आज तक लाखों संकट व परेशानियों से मुक्ति दिलाकर इस योग्य बनाया हम उनका ऋण कभी अदा नही कर सकते है । 
        
  जिन परिवारों में सामाजिक संस्कारों की कमी, बदले की भावना , दहेज लालच, अपने पराये की भावनायें, संपत्ति लालच की भावनायें अपना स्थान बना लेतीं वह परिवार बिघटन, निर्धनता , संकटों से घिर जाते हैं । ऐसे ही परिवार की लड़कियॉ जब दूसरे परिवार या ससुराल में जाती है तो जिन संस्कारों में उनका पालन पोषण होता है उसी के कारण वह अपने पति को अपने कामुक जादू के मध्य अपने वश में करने के बाद जैसा वह चाहती है परिवार में बैसा ही होता है । हम उसे दूसरे रूप में जोरू का गुलाम भी संबोधित करते है ।  आज दूसरे परिवार से जो लड़की आई और वह पुत्र के लिए सब कुछ हो जाती है जो माता-पिता उसे संसार में आने के पूर्व से उसकी प्रत्येक सुरक्षा, संकट से मुक्ति दिलाता रहा वह कुछ नही रह जाता है ।  जब परिवार में इस प्रकार की महिलायें अपना बर्चस्य स्थापित करती है तो वह परिवार नरक की तरह हो जाता  है । ऐसे ही परिवारों में माता-पिता को घर से बाहर कर दिया जाता है या वे स्वयं घर छोड़कर बृध्दाश्रम या अनाथ आश्रम में आश्रय लेकर अपना बुढ़ापा बिताने केलिए मजबूर हो जाते हे । लेकिन हम इस बात को जबानी में भूल जाते है कि आज हम जो अपने माता - पिता के साथ कर रहे है और उन्हे संकट व कष्ट दे रहे हैं आने बाले समय में हमारी संतान भी हमे उसी रास्ता पर जाने केलिए मजबूर करेगीं । आज आवश्यकता है कि प्रत्येक परिवार में मान-सम्मान बने, माता-पिता का सम्मान हो, उनकी सेवा की जावें ।  माता-पिता को तीर्थ स्थानों पर घुमाने ले जावें या वह जाने योग्य है तो उन्हे तीर्थ स्थान भेजें ।  रहने केलिए स्वस्थ्य मकान व पहनने केलिए स्वच्छ कपड़े दिये जावें ।  उनके भोजन की सर्व प्रथम व्यवस्था की जावें ।  बृध्द माता-पिता को धार्मिक पुस्तके, ग्रन्थ, बेद पुराण या जो  वह साहित्य पढ़ सकें उन्हे उपलव्ध्य करायें ।  समय समय पर उनके स्वास्थ्य की देंख-रेंख कराते रहे ।  माता-पिता का आर्षीवाद यदि हो सकें संभव हो तो प्रतिदिन प्राप्त करने का प्रयास करें । उनके आशीर्वाद से दीर्धायू  होती है और मन को परम सुख प्राप्त होता हैं । संसार के जितने भी महापुरुष हुए उन्होंने माता -पिता को ही पूज्यनीय ,माना।  सभी जाति -धर्म व पंथो में भी माँ व पिता को उच्च स्थान दिया गया है।  

वृद्ध माता-पिता के मन की शांति  केलिए उनका मार्ग दर्शन लेते रहे , कोई भी घर-परिवार व समाज में कार्य हो तो उन्हे सम्मान देकर उनके मार्ग दर्शन में ही कार्य सम्पन्न करायें जावे । उनके अनुभव व उनका मार्ग दर्षन हमेषा परोपकारी, कुशलता परिवार की सुख समृध्दि से भरा होगा ।  घर व परिवार की खुशियों में परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिये और अपने से बड़ों का  सम्मान करना चाहिये । व्यक्ति धन व बल से बड़ा हो सकता है लेकिन समाज से बड़ा नही हो सकता है । इसलिए सामाजिक सम्मान को ध्यान में रख कर ही परिवारिक व सामाजिक कार्य करना चाहिये। 
                                 मात-पिता,आचार्य को, सदा करो सम्मान।
                                                         इनके बिन मिलता नहीं, जग का कोई ज्ञान।।
                                                         लेखक - संतोष गंगेले 
                 -प्रदेश अध्यक्ष गणेश शंकर विधार्थी प्रेस क्लब मध्य प्रदेश -09893196874



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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh (RAJ.)

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (22-07-2014) को "दौड़ने के लिये दौड़ रहा" {चर्चामंच - 1682} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...