Sunday, June 29, 2014

मोदी सरकार की बाधाओं को खत्म कर संघ को विस्तार देने के लिये जुटेंगे प्रचारक..........!!! साभार !!


जश्न के मूड में संघ के प्रचारको का नायाब अभियान

पहली बार संघ के प्रचारक जश्न के मूड में हैं। चूंकि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सफर संघ के प्रचारक से ही शुरु हुआ तो पहली बार प्रचारकों में इस सच को लेकर उत्साह है कि प्रचारक अपने बूते ना सिर्फ संघ
को विस्तार दे सकता है बल्कि प्रचारक देश में राजनीतिक चेतना भी जगा सकता है । यानी खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक संघठन कहने वाले आरएसएस के प्रचारक अब यह मान रहे हैं कि राजनीतिक रुप से उनकी सक्रियता सामाजिक शुद्दीकरण से आगे की सीढी है । वजह भी यही है कि पहली बार प्रचारकों का जमावडा राजनीतिक तौर पर सामाजिक मुद्दो का मंथन करेगा। यानी संघ के विस्तार के लिये पहले जहा जमीन सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर अलख जगाने की सच लिये हर बरस प्रचारक सालाना बैठक के बाद निकलते थे। वहीं इस बार जुलाई के पहले हफ्ते में इंदौर में अपनी सालाना बैठक में सभी प्रचारक जुडेंगे तो हर बरस की ही तरह लेकिन पहली बार राजनीतिक सफलता से आरएसएस की विचारधारा को कैसे बल मिल सकता है इस पर मंथन होगा । किसी मुद्दे पर कोई फैसला इस बार प्रचारकों की बैठक में नही होना है। बल्कि हर उस मुद्दे पर मंथन ही प्रचारकों को करना है जो राजनीतिक तौर पर देश में लागू किये जा सकते है । या फिर जिन्हे लागू कराने की दिशा में मोदी सरकार कदम उठाना चाहती है। उत्तर-पूर्व में संघ को लगातार ईसाई समाज से संघर्ष करना पड़ा है। जम्मू में कश्मीरी पंडितों का दर्द बार बार राहत कैंपों से निकल कर संघ को परेशान करता रहा है। देश भर में शिक्षा का आधुनिकीकरण सरस्वती शिशु मंदिर से लेकर संघ के शिक्षा संस्थानो को चेताते रहा है तो उसका कायाकल्प कैसे हो इस पर प्रचारकों को मंथन करना जरुरी लगने लगा है। यानी धीरे धीरे जो मुद्दे विवाद के दायरे में काग्रेस के दौर में फंसते रहे उसे सुलझाने के लिये सरकार काम करे और जमीन पर उसके अनुकुल माहौल बनाने में संघ के स्वयसेवक काम करे तो रास्ता निकल सकता है। कुछ इसी इरादे से प्रचारकों की सालाना बैठक इस बार  २-३ जुलाई से शुरु होगी। और चूंकि पहली बार राजनीतिक तौर पर प्रचारक सक्रिय भूमिका निभाने की स्थिति में है तो राजनीतिक तौर पर भाजपा को कैसे लाभ मिले या चुनावो में भाजपा की पैठ कैसे बढे इसके लिये संघ चार राज्यो में नयी शक्ति लगाने की तैयारी भी कर रही है ।

संघ का विस्तार हो और भाजपा को राजनीतिक सफलता मिले इसके लिये प्रचारकों की बैटक में तमिलनाडु, उडिसा , केरल और पश्चिम बंगाल को लेकर खास मंथन होना तय है । और पहली बार उस लकीर को भी मिटाया जा रहा है जो एनडीए के शासनकाल में नजर आती थी । हालाकि उस वक्त भी संघ के प्रचारक रहे वाजपेयी ही पीएम थे । लेकिन वाजपेयी के दौर से मौदी का दौर कितना अलग है और आरएसएस किस उत्साह से मोदी के दौर को महसूस कर रहा है उसका नजारा धारा ३७० से लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के कोर्स और सीमावर्ती इलाको में सेना की मजबूती के लिये निर्माण कार्य को हरी झंडी देने से लेकर सैन्य उत्पादन केलिये एफडीआई तक को लेकर है । धारा ३७० को खत्म करने के लिये  देश सहमति कैसे बनाये यह प्रचारको के एजेंडे में है । दिल्ली यूनिवर्सिसटी के कोर्स बदलने के बाद अब संघ की निगाहें यूनिवर्सिटी में नियुक्ती को लेकर है । बीते दस बरस से नियुक्तियां रुकी हुई है और अब नियुक्ती ना हो पाने की सारी बाधाओं को खत्म किया जा रहा है जिससे करीब पांच सौ पदो पर नियुक्ती हो सके । हालांकि संघ के लिये यह अजीबोगरीब संयोग है कि मध्यप्रदेश में व्यापम भर्ती घोटाले ने संघ को भी दागदार कर दिया है और संघ के सबसे प्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजे तक घोटाले की दस्तक हो रही है और फिर प्रचारकों की बैठक भी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। जहां संघ के तमाम वरिष्ठो के साथ सुरेश सोनी को भी प्रचारकों की बैठको में पहुंचना है। और चूंकि सुरेश सोनी का नाम भी व्यापम भर्ती घोटाले में आया है तो संघ ने अपने स्तर पर पहली बार अपने शिवराज सिंह चौहान को भी आदर्शवाद घेरे की लक्ष्मण रेखा लाघंने का आरोप लगाना शुरु किया है। दिल्ली से झंडेवालान से लेकर नागपुर के महाल तक में इस बात को लेकर आक्रोश है कि शिवराज सिंह चौहाण की नाक तले व्यापम भर्ती घोटाले होते रहे और चंद नामों की सिफारिशे संघ की तरफ से क्या कर दी गयी समूचा घोटाला ही संघ से जोडने की शुरुआत हो गयी ।

तो आरएसएस के भीतर पहली बार शिवराज सिंह चौहाण को लेकर भी दो सवाल हैं। पहला क्या जानबूझकर संघ के वरिष्ठों का नाम उठाया गया। जिससे संघ घोटालों में ढाल बन जाये । और दूसरा क्या शिवराज सिंह चौहाण ने अपनी खाल बचाने के लिये संघ के चंद सिफारिशी नामों को उजागर करवा दिया। जिससे लगे यही कि संघ का भी दबाब था तो चौहाण की शासन व्यवस्था क्या करें । हो जो भी असर यह हुआ है कि पहली बार आरएसएस के घेरे में मध्यप्रदेश के सीएम शिवराजसिंह चौहाण का आदर्श चेहरा भी दागदार हुआ है। और दूसरा सवाल संघ के भीतर पुराने किस्सो को लेकर सच की किस्सागोई में सुनायी देने लगा है। देवरस के दौर के नागपुर के स्वयंसेवक की मानें तो संघ के भीतर सत्ता मिलने पर नियुक्तिया कैसे हो और किसकी हो यह सवाल खासा पुराना है । और पहली बार इसकी खुली गूंज १९९१ के शुरु में भाउराव देवरस की थी । उस वक्त नागपुर में स्वयसेवको की बैठक को संबोधित करते हुये आउराव ने अचानक मौजूद स्वयसेवको से पूछा कि आज अगर हमें नागपुर में वाइस चासंलर नियुक्त करना हो तो किसे करेंगे । इस पर तुरंत कुछ नाम जरुर आये लेकिन ,ही नाम कौन हो सकता है इसपर सहमति नहीं बनी । इसपर भाउराव देवरस ने कहा कि मान लो अगर हमारे बीच से कोई पंतप्रधान यानी प्रधानमंत्री  बन जाये तो फिर उसे कम से कम पांच हजार नियुक्ती तो करनी ही होगी । तो वह कैसे करेगा । जब आप सभी को एक वीसी का नाम सही नहीं मिल पा रहा है। उस वक्त भाउराव देवरस ने यही कहकर बात खत्म की थी कि हर क्षेत्र में सही लोगो का पता लगाना और उन्हे साथ जोडना या उनके साथ खुद जुड़ना जरुरी है। यानी धारा 370 को लेकर कौन कौन से चिंतक सरकार के सात खडे हो सकते है इसकी खोज संघ को करनी है। चीन को चुनौती देने के लिये कौन कौन से प्रशासक या नौकरशाह अतीत के पन्नों को पलट कर देश की नीति को बना सकते है कि कभी चीन में तिब्बत को लेकर भारत ने भी आवाज उठायी थी । तब सरदार पटेल थे अब तो वैसा कोई है नहीं। फिर धर्मातंरण के उलट धर्मातंरण यानी आदिवासी हिन्दुओ की घर वापसी वाले हालात को लेकर उत्तर-पूर्व के बार में कौन नीति बना सकता है या उससे पहले प्रचारकों को ही माहौल तैयार करना होगा अब मंथन इस पर होगा । यानी मोदी सरकार के
रास्ते की बाधाओ को दूर कर संघ के विस्तार का रास्ता बनाने के लिये प्रचारको का मंथन होगा। निकलेगा क्या इसका इंतजार करना होगा। Posted by Punya Prasun Bajpai



Saturday, June 28, 2014

" केवल समझदार पाठकों हेतु , क्योंकि आज विषय एक बार फिर " सेक्स " है ".....!!- पीताम्बर दत्त शर्मा ( विचारक - विश्लेषक )

लो जी ! हमारे भारत के स्वास्थ्य और चिकित्सा मंत्री विदेश गए हुए थे पीछे से उनका ७ साल पुराण ब्लॉग किसी ने पढलिया , किसी पत्रकार ने उनसे वंही सवाल पूछ लिया कि आप सेक्स की पढ़ाई के बारे में क्या सोचते हैं ?? तो उन्हों ने कह दिया कि इसकी आवश्यकता नहीं है !! बस जी जितने भी सेक्स के जानकार लोग थे लग गए उनके पीछे - " हाय-हाय देखो जी चिकित्सा मंत्री ने ये क्या कह दिया !! आज सेक्स की पढ़ाई की आवश्यकता ही नहीं है !!  बेचारे चिकित्सा मंत्री जी के बचाव में एक और मंत्री बोले कि मैं डाक्टर साहिब का समर्थन करता हूँ ! ये ज्ञान प्रकृति अपने आप पढ़ा देती है ! सेक्स के ज्ञानियों ने रुकने की बजाय अपना शोर और बढ़ा दिया ! तब डाक्टर साहिब ने फिर सफाई दी कि मैं सेक्स शिक्षा के खिलाफ नहीं बल्कि उस " सो काल्ड बुरी शिक्षा के खिलाफ हूँ " !
परन्तु जो लोग चाबी भर के चलाये गए हों , वो भला सफाइयां पेश करने से रुकने वाले थोड़े थे , वो बोले जी नहीं ऐसा कहा गया तो क्यूँ ?? 

             रात 11 बजे एक चेनेल पर ज़नाब अजित अन्जुम साहिब लेकर बैठ गए चार महान विद्वानों को और लगे 1 घंटा भर बहसने इस विषय पर कि सेक्स की शिक्षा देश में दी जानी चाहिए या नहीं ! और दोनों मंत्रियों ने कितना बड़ा पाप कर दिया है ये बताने !!
और इस बहस में शामिल एक वकील साहिब व एक कांग्रेस महिला मंडल की अध्यक्षा  ओनिका महरोत्रा ने मिलकर बहस का जो रूप बिगाड़ा उसे अन्जुम साहिब , मनोचिकित्सक श्री मति दत्ता  के प्रयासों द्वारा सुधरा नहीं जा सका ! बल्कि भाजपा नेता श्री संवित पात्रा जी को तो ओनिका जी तो ऐसे डाँट रहीं थीं जैसे वो उनके विद्यार्थी हों और वो उनकी प्रिंसिपल !! वैसे मैं आपको यंहा ये भी बता दूँ कि अजित अंजुम जी ने उनका परिचय एक स्कूल की प्रिंसिपल के रूप में ही करवाया था !!
                    इस बहस में एक और विशेष बात थी कि अजित अंजुम और उनके कॉंग्रेस्सी मित्र बार-बार ये कह रहे थे की अगर देश में सेक्स की पढ़ाई नहीं करवाई जा सकती तो फिर " बायोलॉजी " भी पढ़ाई जानी बंद कर दी जानी चाहिए , लेकिन क्यों ??? ये कोई नहीं बता रहा था !! कोई इनसे पूछे जब तुम कारण नहीं बता सकते तो सेक्स की पढ़ाई कोई मर्द अध्यापक लड़की को और महिला अध्यापिका लड़के को भला कैसे पढ़ा सकती है ??

                    मुझे तो ऐसा लगता है की सोनिया गांधी जी ने अपने कार्यकर्ताओं , समर्थकों और सहयोगी पत्रकारों , गुंडों, बदमाशों ,समाजसेबियों, वकीलों आदि को ये गुप्त -आदेश दे दिया है कि जैसे भी हो इस मोदी सरकार की राह में " रोड़े "( रुकावटें ) खड़ी करो !!! तभी ऐसा हो रहा है कि अभी जुम्मा-जुम्मा 4 दिन हुए नहीं ये सरकार बने और भाई लोग लग गए लताड़ने , अरे कुछ तो शर्म करो !! 
                अब बात करें सेक्स एजुकेशन की तो इस विषय पर मैं पहले दो लेख लिख चूका हूँ !! जो ज्यादा इन्ट्रस्टिड हों वो उन्हें पढ़ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लें ! आज के लिए सिर्फ इतना ही !! सच में मित्रो !! जब कोई समझदार किसी राजनितिक दाल की कठपुतली बनकर काम करता है तो मुझे बहुत गुस्सा आता है !! तुलसीदास जी ने लिखा था कि ......
    " ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ,ये तीनों ताड़न के अधिकारी "!!  अगर वो आज इस बात को लिखना चाहते तो शायद ऐसे लिखते कि .....
"बुरे  नेता अफसर पत्रकार समाजसेवी ये सब ताड़न के अधिकारी "!!
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Posted by PITAMBER DUTT SHARMA  

Friday, June 27, 2014

वैदिक धर्म यानी हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक थे कुमारिल भट्ट - - - !! साभार !!


 जब पूरा भारत बौद्धों की चपेट यानी बौद्धप्राय हो गया था, लगभग नास्तिक धर्म राष्ट्रबाद से अलग -थलग होता भारतदेश, विदेशी आक्रमण-कारियों के लिए चारागाह होता देश, बौद्धधर्म राजा और महराजाओ का धर्म, जनता की बिना इक्षा के उस पर थोपा हुआ धर्म, जिसका भारतीयता से कोई ताल-मेल नहीं, जिसमे राष्ट्रबाद के लिए कोई स्थान नहीं, ऐसे में किसी भी देश-भक्त का चिंतित होना स्वाभाविक है काशी में एक बौद्ध राजा की महारानी अपने घर के छत पर खड़ी होकर वैदिक धर्म की दुर्दशा पर रो रही थी किससे कहे अपने मन की ब्यथा को--! वैदिक अथवा सनातन धर्म का नाम लेना तो अपराध हो गया था, गली से जाता हुआ गुरुकुल का एक ब्रम्हचारी जिसके सिर पर पानी की कुछ बूद टपकी ब्रम्हचारी को लगा कि बिना वर्षा के ये पानी -- ऊपर देखा तो एक महिला रो रही है, माता क्या कष्ट है-? उस रानी के मुख से अनायास ही निकल गया कौन बचाएगा इस सनातन- वैदिक धर्म को --? मै वेदों का उद्धार करुगा, मै पुनर्स्थापना करुगा अपने सनातन धर्म का, यह आश्वासन देना किसी और का नहीं आचार्य कुमारिलभट्ट का ही साहस था.
         कुमारिलभट्ट के जन्म के बारे में कई मत है कुछ लोग उन्हें दक्षिण भारत का मानते है जबकि उत्तर के लोग मिथिला को उनकी जन्म भूमि मानते है इतना तो सही है २८०० वर्ष पूर्व शंकराचार्य के समकालीन यानी उनसे लगभग उम्र में कुछ बड़े थे, उनके मुख्य शिष्य मंडन मिश्र की शिक्षा -दीक्षा कुमारिल द्वारा स्थापित गुरुकुल गौड़ राजधानी मंडला में हुई, वे पहले आचार्य है जिन्होंने जैन अथवा बौद्ध धर्म का खंडन कर वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध किया, कुमारिल भट्ट माँ नर्मदा उद्गम स्थल अमरकंटक जो गोविन्द्पाद [शंकराचार्य के गुरु] के गुरु गौडपाद की तपस्थली पहुचे उन्होंने गौडपाद [वेदब्यास के अवतार] से कई शंकाए ब्यक्त की आचार्य 'एकं सद बिप्रा बहुधा बदंति'--! इसका निवारण करते हुए गौड़ पाद  ने उन्हें बताया की जिनका विस्वास वेदों पर है, जो भारतीय वांगमय को मानते है, ये उन्ही के लिए है न कि अन्य अथवा परकियो के लिए, दूसरा उन्होंने कहा पुत्र खंडन नहीं मंडन करो, तीसरा उन्होंने वैदिक कर्मकांड पर जोर दिया, उन्ही की बात को ध्यान में रखकर अपने प्रिय शिष्य विश्वरूप का नाम मंडन मिश्र रखा, आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने जो दिग्विजय यात्रा शुरू की उसकी पूर्व भूमिका अथवा वातावरण कुमारिल भट्ट ने पहले ही तैयार किया था, यह अतिसयोक्ति नहीं होगा कि कुमारिल की तर्क बुद्धि के आधार पर ही शंकराचार्य को दिग्विजय प्राप्त हुई .
           कुमारिल को वेदाध्ययन तो था ही लेकिन बौद्ध मत के खंडन हेतु मगध के नालंदा बौद्ध गुरुकुल में अध्ययन करना पड़ा, प्रति-दिन धर्मपाल द्वारा प्रवचन में वेदों की आलोचना होती कुमारिल इस आलोचना को कितना बर्दास्त करते एक दिन सभा में कुमारिल के आखो से आसू बहने लगा धर्मपाल [कुलपति] ने कहा कुमारिल तुम्हारा स्वस्थ ठीक नहीं है तुम विश्राम करो, नहीं आचार्य मेरा स्वस्थ ठीक है पुनः वेदों की आलोचना पर उनके आखो में आसू देखकर धर्मपाल  ने दुबारा टोका वे फिर वही बैठे रहे, जब तीसरी बार वेदों की आलोचना होने लगी तो कुमारिल के आसू देख धर्मपाल ने डाटा की तुम्हारी तबियत ठीक नहीं तुम कमरे में क्यों नहीं जाते---? नहीं आचार्य स्वास्थ तो आपका नहीं ठीक है मै तो ठीक ही हूँ, बिना वेदों के अध्ययन के वेदों की आलोचना कर रहे है आप जैसे विद्वान के लिए यह शोभा नहीं देता, फिर क्या था--? गुरुकुल के आचार्यो को लगा ये तो बौद्ध धर्म को स्वीकार ही नहीं किया, ये सनातन हिन्दू धर्म को ही मानता है जिनका सिद्धांत कहता है अहिंसा परमो धर्मः, उन्होंने कुमारिल को सजा सुनाई कि इसको दुमंजिले से सिर के बल फेक दिया जाय, कुमारिल भट्ट ने कहा -मुझे एक मौका चाहिए, वे पद्म आसन में बैठे आवाहन किया यदि वेद सत्य है तो मुझे कुछ नहीं होगा, उन्हें सिर के बल फेका गया वे पैदल चलते चले गए उनकी विजय पताका पूरे मिथला फिर देश -देशांतर में फैलने लगी.
           कहते है कि वे पूर्वमीमांशा के प्रथम आचार्य है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने जो वैदिक धर्म की विजय पताका पूरे देश में फहरायी उसकी पूरी भूमिका कुमारिल भट्ट ने पहले ही तैयार कर दी थी आचार्य की विद्वता के लिए उनके शिष्य मंडन मिश्र का ही परिचय ही पर्याप्त है, आदि शंकर उनसे शास्त्रार्थ के लिए पधारे तो वे प्रयाग में संगम पर तुषानल [चावल की भूसी] में जल रहे थे शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ के लिए आवाहन किया तो उनकी यह दशा देखकर अपनी अंजुली में जल लेकर मै अभी तुषानल को शांति करता हूँ, नहीं आचार्य मुझे पता था आप आने वाले है, यह कार्य मेरा शिष्य मंडन करेगा मैने गुरुद्रोह किया है मैंने यह स्वयं ही स्वीकार किया है, शंकर ने उनसे कहा कि आपने तो सनातन धर्म, वेदों को बचाने के लिए ही यह कार्य है इसलिए यह कैसे गलत हो सकता है, लेकिन कुमारिल किसी तर्क को मानने को तैयार नहीं थे! शंकराचार्य उन्हें हमेशा गुरु स्थान पर रखते थे उनका मत मीमांसामें गुरुमत कहा जाता है, पूर्वमीमांसा दर्शन के शावर भाष्य पर उनकी टीका है, इनका दूसरा ग्रन्थ 'श्लोक-वार्तिक' है, वे जैन अथवा बौद्ध मतों को खंडन करने वाले प्रथम आचार्य है उन्होंने वेदों की सार्थकता, वेद अपौरुषेय है यह अपने तर्कों द्वारा सिद्ध किया, जिन्हें हमेशा भारतवर्ष और हिन्दू धर्म कृतज्ञता अर्पित करता रहेगा. 



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Wednesday, June 25, 2014

" चित्र बोलते हैं ............!!- पीताम्बर दत्त शर्मा "(विश्लेषक - विचारक )



































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Posted by PITAMBER DUTT SHARMA  

Monday, June 23, 2014

नेहरु के समाजवाद के छौंक की भी जरुरत नहीं मोदी मॉडल को..................!!!!???


बात गरीबी की हो लेकिन नीतियां रईसों को उड़ान देने वाली हों। बात गांव की हो लेकिन नीतियां शहरों को बनाने की हो। तो फिर रास्ता भटकाव वाला नहीं झूठ वाला ही लगता है। ठीक वैसे, जैसे नेहरु ने रोटी कपड़ा मकान की बात की । इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और अब नरेन्द्र मोदी गरीबों के सपनों को पूरा करने के सपने दिखा रहे हैं। असल में देश के विकास के रास्ता कौन सा सही है, इसके मर्म को ना नेहरु ने पकड़ा और ना ही मोदी पकड़ पा रहे हैं। रेलगाड़ी का सफर महंगा हुआ। तेल महंगा होना तय है। लोहा और सीमेंट महंगा हो चला है। सब्जी-फल की कीमतें बढेंगी ही। और इन सब के बीच मॉनसून ने दो बरस लगातार धोखा दे दिया तो खुदकुशी करते लोगों की तादाद किसानों से आगे निकल कर गांव और शहर दोनों को अपनी गिरफ्त में लेगी। तो फिर बदलाव आया कैसा। यकीनन जनादेश बदलाव ले कर आया है। लेकिन इस बदलाव
को दो अलग अलग दायरे में देखना जरुरी है। पहला मनमोहन सिंह के काल का खात्मा और दूसरा आजादी के बाद से देश को जिस रास्ते पर चलना चाहिये, उसे सही रास्ता ना दिखा पाने का अपराध। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह से मुक्ति दिलायी, यह जरुरी था। इसे बड़ा बदलाव कह सकते हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत के प्रधानमंत्री होकर भी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइन्दे के तौर पर ही ७ रेसकोर्स में थे। क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसे पहले पीएम बने, जिन्हे विश्व बैंक से प्रधानमंत्री रहते हुये पेंशन मिलती रही। यानी पीएम की नौकरी करते हुये टोकन मनी के तौर पर देश से सिर्फ एक रुपये लेकर ईमानदार पीएम होने का तमगा लगाना हो  या फिर परमाणु संधि के जरीये दूनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियो को मुफा बनाने देने के लिये भारत को उर्जा शक्ति बनाने का ढोंग हो। हर हाल में मनमोहन सिंह देश की नुमाइन्दगी नहीं कर रहे थे बल्कि विश्व बाजार में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे।

जाहिर है नरेन्द्र मोदी बदलाव के प्रतीक हैं, जो मनमोहन सिंह नहीं हो सकते। लेकिन यहां से शुरु होता है दूसरा सवाल जो आजादी के बाद नेहरु काल से लेकर शुरु हुये मोदी युग से जुड़ रहा है। और संयोग से नेहरु और मोदी के बीच फर्क सिर्फ इतना ही दिखायी दे रहा है कि भारत की गरीबी को ध्यान में रखकर नेहरु ने समाजवाद का छोंक लगाया था और नरेन्द्र मोदी के रास्ते में उस आरएसएस का छोंक है जो भारत को अमेरिका बनाने के खिलाफ है। लेकिन बाकी सब ? दरअसल नेहरु यूरोपीय माडल से खासे प्रभावित थे। तो उन्होंने जिस मॉडल को अपनाया उसमें बर चीज बड़ी बननी ही थी। बड़े बांध। बड़े अस्पताल। बडे शिक्षण संस्थान । यानी सबकुछ बडा । चाहे भाखडा नांगल हो या एम्स या फिर आईआईटी। और जब बड़ा चाहिये तो दुनिया के बाजार से इन बडी चीजो को पूरा करने के लिये बड़ी मशीनें। बड़ी टेकनालाजी। बडी शिक्षा भी चाहिये। तो असर नेहरु के दौर से ही एक भारत में दो भारत के बनने का शुरु हो चुका था। इसीलिये गरीबी या गरीबों को लेकर सियासी नारे भी आजादी के तुरत बाद से गूंजते रहे और १६ वीं लोकसभा में भी गूंज रहे हैं। लेकिन अब सवाल है कि मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, वह बदलाव का है। या फिर जनादेश ने तो कांग्रेस को रद्दी की टोकरी में डाल कर बदलाव किया लेकिन क्या जनादेश के बदलाव से देश का रास्ता भी बदलेगा। या बदलाव आयेगा, यह बता पाना मुश्किल इसलिये नहीं है क्योकि नेहरु ने जो गलती की उसे अत्यानुधिक तरीके से मोदी मॉडल अपना रहा है। सौ आधुनिकतम शहर। आईआईटी। आईआईएम। एम्स अस्पताल। बडे बांध । विदेशी निवेश । यानी हर गांव को शहर बनाते हुये शहरों को उस चकाचौंध से जोड़ने का सपना जो आजादी के बाद बहुसंख्यक तबका अपने भीतर संजोये रहा है। जहां वह घर से निकले।गांव की पगडंडियों को छोड़े। शहर में आये। वहीं पढ़े। राजधानी पहुंचे तो वहां नौकरी करे। फिर देश के महानगरो में कदम रखे। फिर दिल्ली या मुबंई होते हुये सात समंदर पार। यह सपना कोई आज का नहीं है। लेकिन इस सपने में संघ की राष्ट्रीयता का छौंक लगने के बाद भी देश को सही रास्ता क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसे आरएसएस भी कभी समझ नहीं पायी और शायद प्रचारक से पीएम बने मोदी का संकट भी यही है कि जिस रास्ते वह चल निकले है उसमें गांव कैसे बचेंगे, यह किसी को नहीं पता। पलायन कैसे रुकेगा इसपर कोई काम हो नहीं रहा है। सवा सौ करोड़ का देश एक सकारात्मक
जनसंख्या के तौर पर काम करते हुये देश को बनाने संवारने लगे इस दिशा में कभी किसी ने सोचा नहीं । पानी बचाने या उर्जा के विकल्पों को बनाने की दिशा में कभी सरकारो ने काम किया नहीं । बने हुये शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों को पनाह दिये हुये है उसे रोके कैसे या शहरो का विस्तार पानी, बिजली, सड़क की खपत के अनुसार ही हो इसपर कोई बात करने को तैयार नहीं है । तो फिर बदलाव का रास्ता है क्या । जरा सरलता से समझे तो हर गांव के हर घर में साफ शौचालय से लेकर पानी निकासी और बायो गैस उर्जा से लेकर पर्यावरण संतुलन बनाने के दिशा में काम होना चाहिये। तीन या चार पढ़े लिखे लोगो हर गांव को सही दिशा दे सकते है । देश में करीब ६ लाख ३८ हजार गांव हैं। तीस लाख से ज्यादा बारहवी पास छात्रो को सरकार नौकरी भी दे सकती है और गाव को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम भी उठा सकती है। फिर क्यों तालाब , बावडी से लेकर बारिश के पानी को जमा करने तक पर कोई काम नहीं हुआ । जल संसाधन मंत्रालय का काम क्या है । पानी देने के राजनीतिक नारे से पहले पानी बचाने और सहेजने का पाठ कौन पढ़ायेगा । इसके सामानांतर कृषि विश्वविद्यालयों के जिन छात्रों को गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री मोदी गांव भेजना चाहते हैं और लैब टू लैंड या यानी प्रयोगशाला से जमीन की बात कर किसानों को खेती का पाठ पढाना चाहते हैं, उससे पहले जैविक खेती के रास्ते खोलने के लिये वातावरण क्यों नहीं बनाना चाहते ।

किसान का जीवन फसल पर टिका है और फसल की किमत अगर उत्पादन कीमत से कमहोगी तो फिर हर मौसम में ज्यादा फसल का बोझ किसान पर क्यों नहीं आयेगा । खनन से लेकर तमाम बडे प्रजोक्ट जो पावर के हो या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के। उन्हें पूरा करने में तकनालाजी की जगह मानव श्रम क्यों नहीं लगाया जा सकता। जबकि मौजूदा वक्त में जितनी भी योजनाओं पर काम चल रहा है और जो योजनायें मोदी सरकार की प्राथमिकता है उनमें से अस्सी फीसदी योजना की जमीन तो ग्रामीण बारत में है। इनमें भी साठ फीसदी योजनायें आदिवासी बहुल इलाको में है। जहां देश के बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिक हाथ बेरोजगार हैं। क्या
इन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। लातूर में चीन की टक्नालाजी से आठ महीने में पावर प्रोजेक्ट लगा दिया गया। मशीने लायी गयी और लातूर में लाकर जोड़ दिया गया । लेकिन इसका फायदा किसे मिला जाहिर है उसी कारपोरेट को जिसने इसे लगाया । तो फिर गांव गांव तक जब बिजली पहुंचायी जायेगी तो वहा तक लगे खंभों का खर्च कौन उठायेगा । निजी क्षेत्र के हाथ में पावर सेक्टर आ चुका है तो फिर खर्च कर वह वसूलेगी भी । तो मंहगी बिजली गांव वाले कैसे खरीदेगें । और किसान मंहगी बिजली कैसे खरीदेगा । अगर यह खरीद पायेगें तो अनाज का समर्थन मूल्य तो सरकार को ही बढाना होगा । यानी मंहगे होते साधनो पर रोक लगाने का कोई विकास का माडल सरकार के पास नहीं है । सबसे बडा सवाल यही है कि बदलाव के जनादेश के बाद क्या वाकई बदलाव की खूशबू देने की स्थिति में मोदी सरकार है । क्योंकि छोटे बांध । रहट से सिंचाई । रिक्शा और बैलगाडी । सरकारी स्कूल । प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र । सौर उर्जा या बायो-गैस । सबकुछ खत्म कर जिस विकास माडल में सरकार समा रही है उस रास्ते पहाडियो से अब पानी झरने की तरह गिरते नहीं है । सड़कों पर साइकिल के लिये जगह नहीं । बच्चो के खुले मैदानों की जगह कम्यूटर गेम्स ने ले ली है । चलने वालों की पटरी पर चढाई कर फोर व्हील गाडिया ओवर-टेक कर दौडने को तैयार है । और जिस पेट्रोल -डीजल पर विदेशी बाजार का कब्जा है उसका उपयोग ज्यादा से ज्यादा करने के लिये गाडियों को खरीदने की सुविधा ही देश में सबसे ज्यादा है। यानी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर बनने के लिये पैसा बनाने या रुपया कमाने की होड ही विकास माडल हो चला है । तभी तो पहली बार बदलाव के पहले संकेत उसी बदलाव के जनादेश से निकले है जिससे बनी मोदी सरकार ने रेल बजट का इंतजार नहीं किया और प्रचारक से पीएम बने मोदी जी ने यह जानते समझते हुये यात्रियो का सफरचौदह फिसदी मंहगा कर दिया कि भारत में रेलगाडी का सबसे ज्यादा उपयोग सबसे मजबूर-कमजोर तबका करता है। खत्म होते गांवों, खत्म होती खेती के दौर में शहरो की तरफ पलायन करते लोग और कुछ कमाकर होली-दिवाली -ईद में मां-बाप के पास लौटता भारत ही सबसे ज्यादा रेलगाड़ी में सफर करता है ।

दूसरे नंबर पर धार्मिक तीर्थ स्थलो के दर्शन करने वाले और तीसरे नंबर पर विवाह उत्सव में शरीक होने वाले ही रेलगाडी में सफर सबसे ज्यादा संख्या में करते है । और जो भारत रेलगाड़ी से सस्ते में सफर  के लिये बचा उस भारत को खत्म कर शहर बनाकर गाडी और पेट्रोलॉ-डीजल पर निर्भर बनाने की कवायद भूमि सुधार के जरीये करने पर शहरी विकास मंत्रालय पहले दिन से ही लग चुका है । यानी महंगाई पर रोक कैसे लगे इसकी जगह हर सुविधा देने और लेने की सोच विकसित होते भारत की अनकही कहानी हो चली है । जिसके लिये हर घेरे में सत्तादारी बनने की ललक का नाम भारत है । तो गंगा साफ कैसे होगी जब सिस्टम मैला होगा। और सत्ता पाने के खातिर गरीबो के लिये जीयेंगे-मरेंगे का नारा लगाना ही आजाद भारत की फितरत होगी।






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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

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