Friday, March 21, 2014

फेसबुक पर " चालीस + साला औरतें .....-( साभार - अंजु शर्मा )


19 मार्च 2014 को मैंने अपनी वाल पर एक कविता 'फेसबुक पर चालीस साला औरतें' पोस्ट की थी! मेरे मन में इस कविता के कथ्य या शिल्प को लेकर कोई दुविधा नहीं थी क्योंकि ये कविता का पहला ही ड्राफ्ट था! इस कविता पर अभी काफी काम बाकी था पर कविता लिखने के बाद उसे पढ़ते हुए हर बार लगा ये कविता नहीं जाने कितनी ही स्त्रियॉं का जीवन है और मैं हो सकती हूँ, आप हो सकती हैं, ये या वे हो सकती हैं! पिछले कुछ दिनों से लगातार लेखन से जुड़ी तथाकथित 'फेसबुकिया' महिलाओं के विषय में बयानबाजी ज़ोर-शोर से चल रही थी! लेख लिखे जा रहे थे, लेखिकाओं और उनके शुभचिंतकों पर प्रायोजित और मिथ्या आरोपों-प्रत्यारोपों, छद्म-सर्वे, दुराग्रहपूर्ण लेखों की झड़ी के बीच, एक अजीब सी मनोस्थिति से गुजरते हुए, मैंने इसे एक पत्रिका को भेजने के बाद भी इसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया, जिसके लिए संपादक के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट करने की एक कोशिश भी कर चुकी हूँ! मेरी एक महिला मित्र जो खुद समर्थ कवयित्री हैं, एक कॉलेज में पढ़ाती हैं, ने कहा था मुझे कि चालीस साला महिलाओं पर बहुत कुछ लिखा है किन्तु पुरुषों ने, तुमने लिखा है तो एक स्त्री का पक्ष भी सामने आएगा, अच्छा किया!
कविता के पोस्ट होने कुछ देर बार ही मृदुला शुक्ला ने इसे साझा किया! साथ ही साथ लगातार शेयर और कमेंट होते रहे थे! फोन और मैसेज का सिलसिला भी चलता रहा! मेरे इस लेख के लिखे जाने तक 43 शेयर (काफी लोगों ने इसे कॉपी-पेस्ट भी करके पोस्ट किया या मित्रों को भेजा), 291 लाइक्स , 210 कमेंट्स हो चुके थे और करीब 96 मित्रों ने (जी हाँ मेरी वाल पर पब्लिक पोस्ट फोलोअर्स सिर्फ लाइक कर सकते हैं, कमेंट केवल मित्र सूची में शामिल लोग ही कर सकते हैं) इस पर अपने विचार व्यक्त किए! मुझे ये तो मालूम था कि बहुत सी महिला मित्र स्वयं को इस कविता से जोड़ पाएँगी पर ये प्रतिक्रियाएँ इस तरह आएंगी मैंने सोचा भी नहीं था! बहुत से प्रश्न पूछे गए, समीक्षाएं लिखी गईं! खास बात यह रही कि मेरी वाल पर किए गए कमेंट सिर्फ, 'नाइस', 'बहुत अच्छा लिखा' या 'अच्छी कविता है' तक सीमित नहीं रहे! मेरे बहुत से प्रबुद्ध मित्रों ने विस्तार से समीक्षात्मक कमेंट कर कविता को अपनी नज़र से देखने की कोशिशें की! मेरी वाल पर मौजूद इन कमेंट्स में, फोन पर और मुझे आए अनिगिनत संदेशों में कितनी ही महिलाओं ने इस कविता में अपना मन लिख दिये जाने की बात की और कितनी ही महिलाओं को अपने जीवन का अक्स इसमें दिखाई पड़ा! कुछ महिलाएं जो शायद पचास साल के आस-पास हैं उन्होने इस कविता में खुद को पाते हुए मांग रखी कि इसका शीर्षक 'पचास साला औरतें' होना चाहिए था जो यकीनन मेरे दिल को छू गया! इतने सार्थक कमेंट्स, इतनी सराहना और बेबाक समीक्षायेँ सामने आईं कि मैं सभी लोगों को व्यक्तिगत तौर पर आभार या उत्तर नहीं दे सकती थी न ही इस लेख में रख सकती हूँ इसीलिए अपनी एक मित्र के सुझाव पर इस नोट या लेख के माध्यम से अपनी बात रखना चाहती हूँ!
इस कविता को लोगों ने अपने दृष्टिकोण से देखने और परिभाषित करने की कई सार्थक कोशिशें की जो अभूतपूर्व है! मेरी इस कविता की नायिका कोई भी हो सकती है, उसका चालीस साला होना या पचास साला होना इतना महत्व नहीं रखता! दरअसल मेरी कविता की नायिका वे महिलाएं हैं जो बिना शिकवा-शिकायत लगभग 17-18 साल से अपनी गृहस्थी में मगन रही हैं! उनमें से काफी ऐसी भी हैं जिन्होने दोहरी भूमिकाएँ निभाते हुए अपनी रुचि-सुरुचि, अपने हुनर, अपने मन के कोने में दबी खुद को पहचानने की जाने कितनी ही इच्छाओं को सो जाने दिया ताकि अपने परिवार, बच्चों और गृहस्थी को भरपूर समय दे सकें! बहुत सी वे भी हो सकती हैं जिन्होने मेरी तरह एक लंबा समय कामकाजी महिला की सुपरवुमन की भूमिका निभाते हुए एक दिन गृहस्थ जीवन की जटिलताओं के सामने कैरियर को प्राथमिकता न देते हुए परिस्थितिनुसार अपने परिवार और बच्चों को सर्वोपरि माना! लेकिन ये सच है और मेरा निजी अनुभव है कि प्रसूतिगृह, रात-रात जागकर बच्चों का लालनपालन, सास-ससुर की बीमारी में सेवाएँ, मेहमानों का लगातार आना-जाना, पति की नौकरी-निजी जीवन संबंधी व्यस्तताओं से जब भी थोड़ा समय मिला, एक कसक, एक बेचैनी, एक अधूरेपन को हमेशा बगलगीर पाया! बच्चों के किशोर आयु में पहुँचते-पहुँचते जब मुड़कर देखना चाहा तो खुद को ढूँढना बहुत मुश्किल हो चला था! लेखन नियमित नहीं रह गया था और समकालीन साहित्य से दूरी की पीड़ा का दंश अलग था! उसके बाद रात-दिन की मेहनत और अपने लिए व्यस्त पति और बच्चों की दिनचर्या को सुचारु रूप से चलने देने की कोशिशों के बीच लम्हे चुराने की कवायद शुरू हुई! इन पंक्तियों को पढ़िये:
'इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद

अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम

कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर'

इस नए सफर में आत्मा ने जैसे नया चोला पहन लिया था, लेकिन शरीर पर उम्र के निशानात दस्तक देने लगे थे! पर इस नई पारी ने सबको दरकिनार कर दिया ....
'बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,

ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में'

गृहस्थ जीवन में जाने कितने जटिलताओं से वाबस्ता उम्र का ये पड़ाव जाने कितने ही अनुभवों को समेटे था,
'ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं

जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं '

कितनी ही कड़वी घूंटे अब भी इसके हलक में बसी कड़वाहट को उभार देती थीं! पारंपरिक भारतीय जीवन और परिवेश में एक स्त्री का जीवन जीते हुए जाने कितनी ही वर्जनाओं को तोड़ने के गर्व के तमगे इनकी छाती पर टंगे हैं! कितनी चुप्पियां, कितनी घुटन इनके सीनों में दफन है! गृहस्थी में आधारस्तंभ बनकर जीते हुए, पति और बच्चों के उत्तम कैरियर की चिंताओं में घुलते हुए जाने कितने ही राज, कितने ही अवसर, कितने ही मौकों को ये पाँव तले दबाते हुए घर को घर बनाए रहीं!

'ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,

ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है'


पर अब खुद के लिए जीना का वक़्त आया और फेसबुक ने भरपूर मौके दिये! एक हो ग्यारह और ग्यारह को ग्यारह सौ में बदलते देर नहीं लगी! अरमानों को पंख लगने लगे और दबी, दमित आकांक्षाएँ गुनगुनाने लगीं 'आज फिर जीने की तमन्ना है'! अपनी पूर्ववर्तियों के ठीक विपरीत वे न तो ईश्वर के भजन में मगन हुई और न पति की व्यस्तताओं का रोना रोते हुए अपनी उपेक्षा से जन्मे अवसाद को पनपने ही का मौका दिया! अपनी देह से जुड़ी कामनाओं और उससे जुड़े सारे बदलावों को महसूस करते हुए न ही वे पास-पड़ोस की गोसिप और किट्टी पार्टियों की शान बनीं! इन्होने पारिवारिक जिम्मेदारियों को घरेलू सहायकों के साथ मैनेज करना शुरू किया, इन्होने कलम से अपनी दोस्ती को वक़्त सौंपा और फेसबुक ने उन्हे वो स्पेस दिया जो इससे पहले उनके लिए कहीं नहीं था! बच्चों के बड़े होने, परिवार के सीमित होने ने उन्हे सक्रिय होने के लिए भी प्रेरित किया! घर से, परिवार से और कामकाजियों ने काम से वक़्त को चुराना सीखा और अपनी उम्मीदों को पंख लगाकर साहित्य के आकाश पर उड़ान भरते हुए अपने सपनों को छू लेने के प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी! उनके नीरस, सपाट जीवन में खुद के मायने बदलने लगे!
'अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,

जी हाँ, वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं...............'

ये चालीस साला, पचास साला फेसबुकिया औरतें मैं, आप या हमारे आस-पास मौजूद हर वो औरत है जिसे आप मान्यता दी या न दें, जिसने अपने जीवन को अर्थ और आयाम देने की कोशिशें की, वे कितना सफल हुई इसके लिए हमारे सामने कई उदाहरण हैं जो न केवल अंशकालिक लेखिका हैं, साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय है, कई संस्थाओं से जुड़ी हैं, कई ग्रुप और ब्लोग्स से हजारों महिलाओं को जोड़े हुए रास्ता दिखा रही हैं बल्कि अपने परिवार और नौकरी को भी सुचारु रूप से चला रही हैं! फेसबुक पर मौजूद ये महिलाएं मात्र घरेलू या कामकाजी महिलाएं नहीं हैं बल्कि वे महिलाएं हैं जिनका नाम इतिहास में इन अर्थों में सम्मान से लिया जाएगा कि वे अपनी अपनी बगावतों का झण्डा थामे आगे की पंक्ति में खड़ी वे महिलाएं हैं जो सबके लिए जीते हुए भी खुद के लिए जीना सीख पाई और इनके पीछे खड़ी है महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी जिसके लिए रास्ते बनाते बनाते इन्होने कितनी ही बार अपने हाथ लहूलुहान किए!

अंजू शर्मा
                       आपका क्या कहना है साथियो !! अपने विचारों से तो हमें भी अवगत करवाओ !! ज़रा खुलकर बताने का कष्ट करें !! नए बने मित्रों का हार्दिक स्वागत-अभिनन्दन स्वीकार करें !
जिन मित्रों का आज जन्मदिन है उनको हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयाँ !!"इन्टरनेट सोशियल मीडिया ब्लॉग प्रेस "
" फिफ्थ पिल्लर - कारप्शन किल्लर "
की तरफ से आप सब पाठक मित्रों को आज के दिन की
हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं
ये दिन आप सब के लिए भरपूर सफलताओं के अवसर लेकर आये , आपका जीवन सभी प्रकार की खुशियों से महक जाए " !!
जो अभी तलक मेरे मित्र नहीं बन पाये हैं , कृपया वो जल्दी से अपनी फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेजें , क्योंकि मेरी आई डी तो ब्लाक रहती है ! आप सबका मेरे ब्लॉग "5th pillar corruption killer " व इसी नाम से चल रहे पेज , गूगल+ और मेरी फेसबुक वाल पर हार्दिक स्वागत है !!
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

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