Wednesday, December 31, 2014

"नव-वर्ष की बेला पर "बुरे" अगर बुराइयाँ नहीं त्यागें , तो आप सब "अच्छे लोगो" अच्छाइयाँ करना मत त्यागना "!- पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !! सादर नमस्कार ! और नव-वर्ष की शुभ-मंगल-कामनाओं सहित अभिवादन स्वीकार करें !जैसे कि अच्छे लोग कहते हैं कि हर नव वर्ष पर प्रत्येक मनुष्य को अपने अंदर बसी हुई किसी बुराई को त्यागना चाहिए और कोई अच्छी बात को अपनाना चाहिए ! देखने में ये आया है कि कई मित्र नव-वर्ष पर कोई प्रण तो ले लेते हैं लेकिन कुछ समय बाद उसे भूल जाते हैं और ज़िंदगी वापिस उसी ढर्रे पर चलने लगती है !लेकिन हमें अपनी कोशिश जारी रखनी ही चाहिए !
                    इन्हीं बातों पर चलते हुए मैंने 31 दिसंबर 2010 को अपनी सभी बुराइयों-व्यसनों को एक साथ छोड़ दिया था !वो बुराइयां कौन-कौन सी थीं , ये मैं स्वहित में नहीं बताऊंगा , लेकिन इतना अवश्य बताऊंगा कि आज तक मैं उन सभी बुराइयों को अपने से दूर रखने में कामयाब रहा हूँ ! !अभी कल मैंने ये प्रण लिए हैं कि मैं राजनितिक दल और समाज-सेवी संस्थाओं में किसी पद पर नहीं रहूँगा !और एक समय भोजन करूँगा !
               देखते हैं ! ये सब करने में मैं कितना सफल रह पाउँगा ??शुगर-ब्लड-प्रेशर आदि से इस उम्र में ग्रस्त होना आम बात है , क्योंकि वैज्ञानिकों की तरक्की के कारण हमें खाद्य-पदार्थ मूल-रूप में नहीं मिल पा रहे हैं ! किसान लोग भी ज्यादा फसल पाने के चक्कर में खाद और कीटनाशकों का उपयोग भरपूर मात्र में करते हैं !इसीलिए वैद्य और डॉक्टर लोग चीनी-नमक और घी नहीं खाने की सलाह हमारे ही हित हेतु देते हैं !इसी लिए हम सबको ये भी करना पड़ता है !
              आज की ज़िंदगी में तनाव रहना भी एक बड़ी बीमारी के रूप में सामने आ रही है ! जिस हेतु योगा और प्राणायाम करते रहना भी अति आवश्यक है !आज के लिए सिर्फ इतना ही शुभ- मंगल !


Sunday, December 28, 2014

"दिल वालों की दिल्ली का अब कौन बनेगा रानी या राजा "??-पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

 आधुनिक भारत के महान क्रन्तिकारी श्रीमान अरविन्द केजरीवाल साहब और उनकी पूरी टीम को भला कौन नहीं जानता जी ! सब जानते हैं कि ये सब लोग इस दहाई के महानतम धरणाधारी श्रीमान अन्ना-हज़ारे के लोकपाल-बिल हेतु दिए गए धरने की संताने हैं !अन्ना जी तो धरना देकर , लोकपाल बिल मनमोहन सरकार से पास करवाकर कबके वापिस महाराष्ट्र को कूच कर गए ! लेकिन इस केज़रीवाल - टीम के पास शायद और कोई काम बचा नहीं , या फिर इन्हें नेतागीरी कुछ ज्यादा ही भा गयी है , इसीलिए शायद ये सब कसम खाए बैठे हैं कि दिल्ली के राजा अवश्य बनेंगे ! चाहे सारे चेनेल के एंकरों को मंत्री क्यों ना बनाना पड़े ! 
           मेरे प्रिय मित्र श्री मान पुण्य-प्रसुन्न वाजपेयी जी  इनकी चलों के शिकार हो चुके हैं ! जिसे सबने टीवी पर देखा था ! जी हाँ जी !!! ये केजरीवाल टीम यही सोचती रहती है कि किसे कैसे फँसाया जाये ?? कि हमारा उद्देश्य हमें मिल जाए ??नाटक और ड्रामे  ये सब माहिर हैं ! इसीलिए तो जिन्होंने इनके थप्पड़ मारे , वो इन्हीं के ही सदस्य हैं ! जिन्होंने स्याही फेंकी  इन्ही के ही हैं ! हमारे भोले-प्रिय मित्र प्रसुन्न जी इनके बारे में  और दिल्ली की राजनीती के लिए ,ये लिख रहे हैं , जिन्हे हम साभार आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं :-
            

अब दिल्ली की बारी !


सपने जगाने वाली सियासत से बचायेगा कौन ?
        सपने विकास के जागे रुबरु गोडसे से लेकर धर्मांतरण से होना पड़ा। सपने भ्रष्टाचार और बाप बेटे की सरकार के खिलाफ जागे रुबरु घोटले की जांच में फंसे रघुवर दास और उमर अब्दुल्ला तक से होना पड़ रहा है। सपने दामाद के खिलाफ जागे तो सरकारी फाइल ने ही धोखा दे दिया। सपने मुंबई में वसूली करने वालों के खिलाफ जागे तो रुबरु वसूली करने वालो के साथ सरकार बनाने और बचाने के खेल से होना पड़ा। अब सपने दिल्ली पर आ टिके हैं क्योंकि पाश कह गये हैं सपनों का मरना सबसे खतरनाक होता है। तो दिल्ली से दिल्ली तक के सपने का इंतजार फिर से जाग रहा है। क्योंकि बदलाव का सपना सबसे पहले दिल्ली ने ही देखा। और २०१३ में सपने को पूरा भी किया। और उसके बाद २०१४ की हवा में बदलाव का सपना कुछ इस तरह उड़ान भरने लगा कि केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर तक की तो सियासत पलट गई। हर जगह कांग्रेस सत्ता में थी और हर जगह अब बीजेपी की सत्ता है या बननी वाली है। कांग्रेस हर जगह बूरी तरह पिटी। और हर जगह भगवा खूब लहराया। अब याद कीजिये तो बदलाव की पहली नींव दिल्ली में ही पड़ी थी और वह साल २०१४ नहीं बल्कि २०१३ था। और जिस कांग्रेस का सूपड़ा साफ जनता ने किया, उसी जनता ने पहला पत्थर कांग्रेस के खिलाफ दिल्ली में ही उठाया। हैट्रिक बनाने वाली शीला दीक्षित दिल्ली में ना सिर्फ खुद हारी बल्कि दिल्ली के इतिहास में कांग्रेस की सबसे बूरी गत दिल्ली ने देखी और कांग्रेस को दिखायी। और उसके बाद का सिलसिला तो मोदी-मोदी के नारो में जिस तेजी से चुनाव में घुमा उसने अर्से बाद देश के तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि कल तक की बीजेपी के गागर में वोटो का सागर यूं ही नहीं समा रहा है। बल्कि किसी पार्टी का कोई चेहरा ऐसा बचा ही नहीं है जिसके आसरे सपने भी पाले जा सकें। तो २०१४ के बीतते ही पहला सवाल हर किसी के जहन में यही आयेगा कि जिस दिल्ली ने काग्रेस की जमी जमायी १५ बरस की सत्ता को उखाड़ फेंका, क्या वही दिल्ली एक बार फिर दिल्ली के तख्त तले दिल्ली सरीखे केन्द्र शासित राज्य के जरीये ही कोई नया सपना दिखा सकती है। या फिर मोदी मोदी की गूंज दिल्ली को भी हड़प लेगी। दिल्ली के सपनों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या साल भर के भीतर दिल्ली के नये सपने मोदी के सपनों को चुनौती दे सकते हैं। या फिर देश के साथ कदमताल करने के लिये दिल्ली तैयार है। देश के साथ कदमताल का मतलब मोदी सरकार है। और नये पैगाम का मतलब मोदी सरकार का विकल्प है।

वैसे बिहार चुनाव से पहले मोदी सरकार का चुनावी विकल्प बनने की तैयारी में जनता परिवार भी खूद को धारदार बना रहा है। लेकिन दिल्ली का सवाल चुनावी विकल्प बनना या बनाना नहीं बल्कि विकास के नाम पर धारदार होती सत्ता को सामाजिक-आर्थिक बिसात पर चुनौती देना और सत्ता में सिमटती जनता की मजबूरी को मुक्त कराना है। यह सवाल दिल्ली के चुनाव में कैसे उठ सकता है या इसे कौन उठा सकता है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन दिल्ली चुनाव का दूसरा मतलब शायद चुनावी प्रबंधन का विकल्प बनान भी हो चला है। जाहिर है ऐसे मोड़ पर दिल्ली के पन्नों को पलटें तो १४ फरवरी २०१४ के बाद तीन महीने तक दिल्ली में हारी कांग्रेस की अगुवाई में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने ही सत्ता संभाली और बीते सात महीनों से बीजेपी की अगुवाई में वही उप-राज्यपाल नजीब जंग ही दिल्ली को चला रहे हैं। यानी जिस शीला दीक्षित के विकास की अंधेरी गली को दिल्ली वालों ने पलट दिया उस दिल्ली वालों के सामने २८ दिसंबर २०१३ से १४ फरवरी २०१४ के बाद अपने दर्द का जिक्र करने वाला आया ही नहीं। और इसी दौर में देश के सारे चुनावी पर्दे बदल गये। तो दिल्ली का मतलब है क्या और होगा क्या।

दरअसल शीला दीक्षित दिल्ली में इसलिये नहीं हारी कि उन्होंने विकास नहीं किया। बल्कि हारीं इसलिये क्योंकि केन्द्र की मनमोहन सरकार के घपले घोटालों की फेरहिस्त के बीच अन्ना आंदोलन ने पहली बार देश के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि सत्ता का मतलब ताकत या राजा बनना नहीं होता। और उसी दौर में जनता ने जैसे ही अन्ना के चश्मे से संसद और सत्ता को देखना शुरु किया तो उसे लगा कि उसकी ताकत तो लोकतंत्र की चौखट पर सत्ता से भीख मांगने के अलावे कुछ है ही नहीं। आंदोलन की सबसे बडी ताकत सत्ताधारियों को सेवक मानने और खुले तौर पर कहने की सोच से उभरी। सत्ता पाना और सरकार चलाने के रुतबे में कांग्रेसियो की आंखें फिर भी ना खुली कि सत्ता उनका जन्मसिद्द अधिकार नहीं है। और सत्ता पाने के लिये लालयित बीजेपी भी कमोवेश उसी अंदाज में निकलना चाह रही थी कि कांग्रेस के बाद सत्ता पाना तो उसका अधिकार है। ध्यान दें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने २०१३ में सत्ता की बात कभी कही ही नहीं और उसी दौर में दिल्ली के तख्तोताज पर नजर जमाये नरेन्द्र मोदी को भी इसका एहसास हुआ कि सत्ता पाने के लिये सत्ता की जगह सेवक होकर चुनाव जीतना ज्यादा आसान है। और दोनों जगहों पर परिवर्तन या सत्ता पलटने में जनता ने सपना देखा कि सत्ताधारी सेवक हो चला है तो साथ सेवक का ही दिया। अपने अपने घेरे में सपने दोनों ने जगाये। केजरीवाल के सपने सत्ता के तौर तरीके बदलकर सत्ता चलाने के थे। नरेन्द्र मोदी के सपने सुविधाओं का पिटारा खोलने वाले रहे। केजरीवाल जनता को भागीदार बनाकर राजा-प्रजा की लकीर को खत्म करने का सपना दिखा रहे थे। मोदी राजा बनकर रात रात भर जाग कर जनता का हित साधने का सपना पैदा कर रहे थे।

केजरीवाल जनता में यह भरोसा जता रहे थे कि सत्ताधारियों को भी सड़क का सिपाही बनाकर रात रात भर खड़ा किया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सत्ताधारियों में अनुशासन और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का वायदा कर जनता को भरोसे में लेते रहे। केजरीवाल भूखे पेट रहकर सत्ता के संघर्ष को जनता से जोड़ने का सपना पाले रहे। और मोदी हर क्षण जनता के दर्द के साथ जुड़कर सत्ता की जमीन और छत दोनो दिलाने के सपने जगाते रहे। दोनों के निशाने पर भ्रष्टाचार था। दोनों की निगाहों में ईमानदारी थी। दोनों ने खुद को पाक साफ साबित करने के लिये सत्ताधारियों को ही निशाने पर लिया। केजरीवाल ने मनमोहन सरकार के कैबिनेट मंत्रियों के भ्रष्टाचार के अनकहे किस्सों से लेकर क्रोनी कैपटलिज्म की अनकही कहानियों को ही सार्वजिक कर कानून चलाने वालो पर चोट कर दी। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की जगह गांधी परिवार और दामाद पर सीधा हमला कर आम जनता की उस नब्ज को छुने की कोशिश की जहां रंक साजा से टकराने की हिम्मत करता हुआ दिखायी थे। दोनों ही अपने अपने घेरे में खूब सफल हुये । और दोनो ने ही देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को ही हराया। लेकिन अब ना तो २०१३ है ना ही २०१४ । अब २०१५ शुरु हो रहा है और संयोग से दिल्ली में टकराना इन्हीं दोनों को है। कांग्रेस नहीं है। गांधी परिवार के अनकहे किस्से नहीं है। भ्रष्ट मंत्रियों की फेहरिस्त नहीं है। राजनीतिक प्रयोग की नयी बिसात है। सपनों को जगाने का जमावड़ा है। चुनाव कैसे जीता जाता है इसकी खुली प्रयोगशाला पार्टी संगठन के नायाब प्रयोग है। हर वोटर के घर तक पहुंचने की ख्वाहिश है। हर वोटर के दिल में सपनों को जगाने की चाहत है और सत्ता हर हाल में मिल जाये इसके लिये सेवको की कतार है। तो फिर दिल्ली के सपने होंगे क्या। क्या सबसे बड़ा सपना यही हो चला है कि दिल्ली में २०१३ की सियासी टकराव की धारा २०१५ में तीन सौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वही आ खड़ी हुई है , जहां उसे नये सपने जगाने होंगे। व्यवस्था बदलने की ठाननी होगी। दूरियां बढाती बाजार व्यवस्था को थामना होगा। विकास के सपने तले जिन्दगी की त्रासदियों के सच को समझना होगा। दो जून की रोटी के लिये संघर्ष और जमा
देने वाली ठंड में बिन छत जीने की मजबूरी वाले हालात किसने खड़े किये उस सियासत से भी टकराना होगा। हक के सवाल सत्ता से बडे होते है, यह मानना होगा। यानी चुनावी बिसात सामूहिकता के संघर्ष का बोध भर ना कराये। वोट के लिये मारा-मारी जिन्दगी सुकुन बनाने के पैकेज पर ना टिके। चुनावी जीत के बाद की सत्ता चंद हाथो के जरीये सपने पूरा करने वाले एहसास पर ना टिके इसके लिये दिल्ली को तैयार होना ही होगा।

लेकिन यह संभव कैसे है। एक तरफ केन्द्र सरकार अगर खुद को चुनाव जीतने के कारखाने में बदल लेने पर आमादा हो और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी अब चुनाव जीतने की कवायद में खुद को प्रोफेशनल बनाने पर तुली है। तो फिर वह सपने कैसे जागेंगे जिसमें जिक्र स्वराज का होना है। जहां रोजगार और विकास के सपने नहीं चाहिये बल्कि मौजूदा व्यवस्था के तौर तरीको को बदलते हुये राज्य को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठते कदम हो। बिजली-पानी की कीमत वसूली या सडक टैक्स किसी कारपोरेट के मुनाफे से ना जुड़ें। सुशासन का मतलब नौकरशाही की सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक नौकरी भर ना हो। विकास का मतलब किसी भी नीतियों के लागू करने का एलान भर ना हो। योजनाओं को लेकर ब्लू प्रिंट के बगैर देश को बदलने का सपना जगाने का ना हो। हर हाल में चकाचौंध का सपना और सूचना क्रांति के जरीये ज्यादा ज्यादा से माध्यमों से सिर्फ अपनी बात हर किसी के कानों में गूंजाने भर का ना हो। लूटियन्स की दिल्ली में ही नये बरस के जश्न में दिल्ली के पकवानों को बेचने और खाने वालो के बीच फेका हुआ झूठन चुन चुन कर खाने की जद्दोजहद करते लोगो की तरफ आंख मूंद कर अपनी गरम जेब टटोलने भर का ना हो। असल में २०१५ का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहाने वाले जीत के दो नायकों के सपनो का नहीं होना चाहिये बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखाने वाला होना चाहिये। जिसकी उम्मीद की जाये या यह मान कर चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिये दूसरे को जीता दें। और फिर कल कोई दूसरा उड़ान भरे तो उसके पर कतरने के लिये वोट बैंक का आसरा ले लिया जाये। सियासत के ऐसे चुनावी प्रयोग ही बीते साठ बरस का सच है। जनता ऐसे सपनो को देखते देखते थक चुकी है। इसलिये मनाइये कि २०१५ में दिल्ली सरीखा छोटा सा राज्य ही कोई राह दिखा दे तो लोकतंत्र की जय कहा जाये। विदेशी पूंजी और चोखे कारपोरेट के आसरे दिल्ली ना चले  बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य , पानी, सफर और छत मुहैया कराने के जिम्मेदारी खुद राज्य ले लें तो ही सपने जागेंगे। नहीं तो फिर सपने टूटेंगे। २०१३-२०१४ का भरोसा डिगेगा और जनता का गुस्सा फिर किसी आंदोलन के इंतजार में लोकतंत्र को नये सिरे से जीने का इंतजार करेगा । हो सकता है फिर वहां से कोई नायक निकले जो कहे सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। और देश फिर सपनों की उड़ान भरने लगें।
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सधन्यवाद !!
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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh. (raj)INDIA.  

Friday, December 26, 2014

'भारत रत्न' के एलान से राजधर्म का कर्ज उतर गया !


"मेरा एक ही संदेश है कि राजधर्म का पालन करें। राजधर्म....। यह शब्द काफी सार्थक है। मै इसी का पालन कर रहा हूं। पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिये शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता। ना जन्म के आधार पर ना जाति के आधार पर ना संप्रदाय के आधार पर। [ हम भी वही कर रहे हैं साहेब] मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई भी यही करेंगे।"

राजधर्म शब्द भी सियासी कटघरा हो जायेगा, यह न तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने बोलते वक्त सोचा होगा ना ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि २००२ से २०१२ तक राजधर्म के कटघरे में बार बार उन्हें आजमाने की कोशिश होगी।  बारस बरस पहले वाजपेयी के सिर्फ साठ सेकेंड के इस वक्तव्य ने नरेन्द्र मोदी के सामने राजधर्म का इम्तिहान बार बार रखा। और हर बार गुजरात चुनाव जीतने के बाद भी राजधर्म शब्द ने २०१२ तक मोदी का पीछा भी नहीं छोड़ा। और दस बरस तक यह ऐसा सवाल बना रहा जो बार बार वाजपेयी और मोदी के नाम का एकसाथ जिक्र होते ही हर जुबा पर बरबस आया ही। संयोग देखिये जैसे ही बुधवार की सुबह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने का ऐलान हुआ, वैसे ही राजनीतिक गलियारे में पहला शब्द यही गूंजा कि चलो राजधर्म का कर्ज आज उतर गया। लेकिन भारत रत्न के एलान के साथ ही मोदी के लिये कहे गये राजधर्म शब्द का दायरा भी बड़ा हो गया और २००२ में जिस राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुये वाजपेयी जी यह बोलते बोलते बोल गये थे कि, ‘मैं भी राजधर्म का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं।’तो भारत रत्न वाजपेयी के राजधर्म को भी समझना जरुरी है, जिन्हें संसद के भीतर पहली बार बोलते हुये सुनने के बाद १९५९ में नेहरु भी यह कहने से नहीं चुके थे कि यह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा गांधी ने भी जिस वाजपेयी को सराहा और आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई सरकार की कश्मकश से आहत जेपी से पटना मिलने गये जिस वाजपेयी ने पत्रकारों को मुहावरे में जबाब देकर मोरारजी देसाई सरकार के बारे में सबकुछ कह दिया और जेपी भी वाजपेयी की साफगोई पर खुश हुये बिना ना रह सके वह मुहावरे वाला बयान था, उधर कुंड, इधर कुंआ बीच में धुआं ही धुआं। [ दरअसल उस वक्त सूरज कुंड और पटना में जेपी के घर कदम कुआं के बीच मोरारजी सरकार झूल रही थी ] यूं वाजपेयी पर तो वीपी और चन्द्रशेखर भी तब मुरीद हुये जब आडवानी की रथयात्रा के दौर में वाजपेयी विदेश यात्रा पर निकल गये। लेकिन राजधर्म के दायरे में वाजपेयी का असली इम्तिहान तो अयोध्या कांड के वक्त हुआ। ५ दिसंबर १९९२ को वाजपेयी के भाषण ने राजधर्म की लकीर पर चलने वाले वाजपेयी को अयोध्या में धर्मराज के तौर पर देखा समझा। वाजपेयी ने १५ मिनट के भाषण में जो कहा वह २००२ के राजधर्म पर भारी था। हजारों हजार कारसेवकों को संबोधित करते हुये वाजपेयी बोले,

‘सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिया है उसका अर्थ मै बताता हूं। वो कारसेवा रोकना नहीं है। सचमूच में सुप्रीम कोर्ट ने हमे अधिकार दिया है कि हम कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही पैदा नहीं है। कल कारसेवा
करके अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय की अवहेलना नहीं होगी। कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का सम्मान किया जायेगा। ये ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक अदालत में वकीलों की बेंच फैासला नहीं करती आपको निर्माण का काम बंद रखना पड़ेगा। मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आप भजन कर सकते हैं। कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है। और कीर्तन के लिये तो और भी लोगो की आवश्यक्ता होती है। और भजन कीर्तन खड़े खड़े तो हो नहीं सकता। कब तक खड़े रहेंगे। वहां नुकीले पत्थर निकलते हैं तो उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता। तो जमीन को समतल करना होगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।’

जाहिर है राजधर्म के यह सवाल अब इतिहास के पन्नों में खो गये से लगे। लेकिन देश भी तो बनते बनते बनता है। और आजादी के ६७ बरस के दौर में भारत रत्न समयकाल से तो कम ही मिले। ६७ बरस में ४५ भारत रत्न। और राजधर्म का सवाल तो इसलिये भी बड़ा है क्योकि राजनेताओं ने खुद को ही भारत रत्न माना। सबसे पहले तो नेहरु ने ही खुद को १९५५ में भारत रत्न से नवाज दिया। इस लीक पर इंदिरा गांधी भी
चली और १९७१ में उन्होने भी खुद को भारत रत्न के सम्मान से नवाजे जाने में कोताही नहीं बरती। वैसे इस राह पर राजीव गांधी तो नहीं चले लेकिन राजीव गांधी की मौत से निकली कांग्रेसी सत्ता की कमान थामे पीवी नरसिंह राव ने पीएम बनते ही राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करार दिया। यूं पीवी नर्सिमह राव ने हिम्मत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी भारत रत्न देने के ऐलान के साथ दिखायी। लेकिन नेताजी का मामला विवादों में घिर गया । क्योंकि नेताजी के अधिकांश अनुयायी यह मानते है कि उनकी मृत्यु की कथा मनगढंत और संदेहास्पद है। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया। और एक बहुत बड़े वर्ग को ध्यान में रखकर इसे ४ अगस्त १९९७ को रद्द भी कर दिया गया। लेकिन तब भाजपा ने मुद्दा उठाया कि नेताजी की मौत से जुड़ी सारी फाइलें सार्वजनिक की जायें। लेकिन नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने की हिम्मत ना तो वाजपेयी ने दिखायी ना ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिखा पा रहे हैं। और राजधर्म राजा बनते ही हर किसी से कई मुद्दो पर चूका। लेकिन १३ दिन और १३ महीने की सरकार गंवाने के बाद जब तीसरी बार वाजपेयी राजा बने तो संसद में यह कहने से नहीं चूके कि बहुमत होता तो राम मंदिर, धारा ३७० और कॉमन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में नहीं डालते।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के बाद जवाब देते हुये वाजपेयी ने खुले तौर पर कहा,

"राम मंदिर के निर्माण का जिक्र नहीं है। धारा ३७० को खत्म करने का जिक्र नहीं है। कामन सिविल कोड का जिक्र नहीं है। आपने तो स्वदेशी का भी परित्याग कर दिया। और यह बातें इस तरह कहीं गई जैसे इस बात को कहने वाले बेहद दुखी हैं । वो तो इन बातो की आलोचना करते रहे। हमें इसलिये दोषी ठहराते रहे कि हम राममंदिर बनान चाहते हैं। ३७० खत्म करने की बात कह रहे हैं। तो हम देश की एकता कैसे कायम रखेंगे। शादी ब्याह का सामान कानून भले ही संविधान में लिखा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मोहर लगायी है। आप कैसे कह सकते हो । और आप कहेंगे तो आप देश को तोड़ देंगे। और अगर हम कहते है कि कि यह सारे कार्यक्रम नहीं है। तो यह इसलिये नहीं है क्योंकि हमें बहुमत नहीं है । हमने कुछ छुपने छुपाने की बात नहीं की। हम बहुमत के लिये लड़ रहे हैं। जो जनमत मिला उसने आपको अस्वीकार कर दिया। हमे भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। हम तो बहुमत चाहते थे।"

तो वाजपेयी के राजधर्म के अक्स में भाजपा तो आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है । फिर विकास के दायरे में दिल के मुद्दे सत्ता के लिये खामोश है या फिर दिल बदल गया है क्योंकि देश बदल रहा है। लेकिन राजधर्म तो राजधर्म ही होता है। और राजधर्म निभाते हुये किसी राजा की घर वापसी नहीं होती। ना तो २००२ के राजधर्म की परिभाषा बदली और ना ही राजधर्म निभाने का प्रयास करते वाजपेयी के कथन की भाषा बदली है कि शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं होता । ना जाति के आधार पर । ना जन्म के आधार पर । ना संप्रदाय के आधार पर । शायद इसीलिये वाजपेयी को भारत रत्न के एलान ने राजधर्म के सियासी कटघरे के बारह बरस के वनवास को खत्म कर दिया।



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आशा है आपका प्यार मुझे इसी तरह से मिलता रहेगा !!आपका क्या कहना है मित्रो ??अपने विचार अवश्य हमारे ब्लॉग पर लिखियेगा !!
सधन्यवाद !!
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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Thursday, December 25, 2014

" हम किसी के प्रिय नहीं , तो क्या , इसलिए हम सबके विरोधी हैं "??-पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

आज क्रिसमिस की छुट्टी थी,सर्दी भी अपने चरम स्तर पर थी,तो रजाई से उठने का मन ही नहीं कर रहा था ! सुबह से दो बार चाय पी चुके थे ! एक बार फिर चाय पीकर नहाने-धोने की सोचकर श्रीमती जी को अधिकार भरे लहजे में हम बोले , हे भागवान !! ज़रा एक कप चाय तो और देदो , कड़क सी ! रसोई से " कड़कती " हुई आवाज़ आई सारा दिन चाय ही पीते रहोगे क्या ?, या फिर कोई काम-धाम भी करोगे ?ये ठीक कराना है , उसे साफ़ करना है ,आता पिसवाने भी जाना है ?10 बजने को हैं !
           मैं बोला बस एक कप चाय मांग ली तो इतनी शिकायतें हमसे हो गयीं आपको ?? पडोसी को देखो !! वो कितना सुख भोग रहा है ! हमारे भाग्य में पत्नी- प्यार नहीं बल्कि झिड़कियां ही लिखीं हैं क्या ?पत्नी  बोलीं लाती हूँ ज्यादा डायलॉग मत मारो लेखक जी ! पत्नी द्वारा दी गयी मीठी-कड़क चाय का एक घूँट भरा ही था कि साहेबज़ादे आ गए बोले पापा जी 500 रूपये दीजिये आज पार्टी देनी है दोस्तों को ! मैं बोला , बेटा !! हम क्रिश्चियन तो नहीं बने हैं आज तक , तो फिर पार्टी किस बात की ? तुम्हारा जनम दिन भी नहीं है आज और शादी के लायक तुम अभी हुए नहीं ! अंदर से पत्नी जी फिर बोलीं , तुम कौन से शादी के लायक थे जब तुम्हारी शादी कर दी गयी थी ?बेटा बोला - पापा आप भी ना प्रश्न बहुत पूछते हो? मेरे दोस्तों के पापा तो अपने बेटे को हर महीने 1000 रूपये ख़ुशी-ख़ुशी दे देते हैं ! पाठक मित्रो !!पैसे भी देने पड़े और दूसरों की तारीफ़ भी सुननी पड़ी जो बहुत ही पीड़ा दायक थी !
        मौका बढ़िया देख कर बेटी कहाँ पीछे रहने वाली थी ? प्यार से बोली , पापा आप तो अन्याय करोगे नहीं , अगर भैया को 500 दिए हैं तो मुझे भी मिलेंगे ही ये मैं जानती हूँ ! सोचा की चलो बेटी से तारीफ मिलेगी सुनने को , उसे भी 500 रूपये दे दिए ! रूपये हाथ से झटकते हुए और जाते हुए बेटी बोली - बिना मांगे पैसे देते तो अच्छे पापा मानती आपको !!इस तरह से 1000 रूपये की चोट खाकर , तीसरा कप चाय पीकर और पत्नी-प्रसाद लेकर नहाया-धोया और घर के आवश्यक काम निपटाता हुआ अपने आफिस पंहुचा तो असिस्टेंट बोला सर आप तो बहुत लेट आते हो !
           जैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठा तो असिस्टेंट बोला सर वो मंत्री जी का फोन आया था , कह रहे थे कि आज के लेख में कुछ तारीफ़ में लिखें हमेशां विरोध ही करते  आप अपने विश्लेषण में ! मैं बोला अब मैं क्या उनको " भारत - रत्न " दिलवा दूँ ?? करम अच्छे करेंगे तो ही तारीफ कर पाउँगा ना !! जी सर !! मंत्री जी ने फैक्स करके करवाये गए कार्यों की लिस्ट भी भेजी है ! मैं बोला यार एक कप कोफ़ी मंगवाओ !! फिर काम शुरू करते हैं ! असिस्टेंट जाते-जाते बोलता हुआ गया की कैसे-कैसे लोग दफ्तर में अफसर बन जाते हैं आते ही खर्चा करने लगते हैं !! साहिब ठीक ही कहते हैं कि "लेखक" लिखते कम हैं,काफी ज्यादा पीते हैं !
          मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और सोचने लगा कि कहीं यही वजह तो नहीं जो "बुद्धिजीवियों" को कुछ पसन्द नहीं आता आजकल ?? हमारे घर-समाज-शहर-देश और विश्व का वातावरण तनाव पूर्ण होता जा रहा है !! आर्थिक युग की देन है ये शायद ! आप क्या सोचते हैं ?? क्या आपके साथ भी यही हो रहा है ???
      
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आपका प्रिय मित्र,
पीताम्बर दत्त शर्मा,
हेल्प-लाईन-बिग-बाज़ार,
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जिला-श्री गंगानगर।
मोबाईल नंबर-09414657511
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...