Saturday, December 28, 2013

क्यों दिल्ली की सत्ता संभालने में बेखौफ हैं केजरीवाल?


दिल्ली की सरकार को लेकर एक सस्पेंस है। जो किसी को डरा रहा है। किसी को सुख की अनुभूति दे रहा है। किसी को नौसिखिये का खेल लग रहा है। किसी को बदलती सियासी बिसात की खूशबू आ रही है। सस्पेंस में ऐसा है क्या और क्या वाकई दिल्ली की राजनीति समूचे देश को प्रभावित कर सकती है। यह ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन परिस्थितियों को पढ़ें तो कांग्रेस के माथे की शिकन भाजपा की सियासी उड़ान पर लगाम और केजरीवाल की मासूम मुस्कुराहट सस्पेंस को लगातार बढ़ा भी रही है और रास्ता भी दिख रही है। ध्यान दें तो समूची राजनीति का शोध मौजूदा वक्त में गवर्नेंस के उस सच पर आ टिका है जो पारंपरिक आंकड़ों के डिब्बे में बंद है। इसलिये बिजली बिल में पचास फीसदी की कमी और सात सौ लीटर मुफ्त पानी देने के केजरीवाल के वादे को पूरा करने या ना करने पर ही दिल्ली सरकार का पहला सस्पेंस टिका है। जाहिर है आंकड़ों के लिहाज से बिजली-पानी की सुविधा परोसने के केजरीवाल के वादे को परखें तो हर किसी को लगेगा कि यह असंभव है। सब्सिडी पर ही संभव है, लेकिन वह भी कब तक। हजारों-करोड़ों रुपये का खेल हर किसी को नजर आने लगेगा। और फिर शुरु होगा राजनीतिक फेल-पास का आंकलन। लेकिन
यहीं से आम आदमी पार्टी की राजनीति के उस पाठ को भी पढ़ना जरुरी है जो मौजूदा राजनीति के तौर तरीकों के खिलाफ खड़ा हुआ। दिल्ली वालों को अच्छा लगा कि कोई तो है जो उनकी रसोई, उनके घर के भीतर झांक कर बाहरी दरवाजे पर लगे परदे के अंदर के उस सच को समझ रहा है कि आखिर सत्ता की नीतियों तले कैसे हर घर के भीतर लोगो का भरोसा राजनेताओ से डिग चुका है। जीने के लिये जिस रोजगार को करने या रोजगार की तालाश में हर घर से कोई ना कोई काम पर निकलता तो उसे यह पता होता है कि हर दिन नौ से बारह घंटे काम करने के बाद भी उसे अगले दिन उसी जद्दोजहद में निकलना है, जहां उसे आराम नहीं है।
लेकिन मोहल्ले या इलाके का कोई शख्स बिना काम किये राजनीति करते करते हर सुविधा ना सिर्फ जुगाड़ता चला जाता है बल्कि झटके में एक दिन पार्षद, विधायक या सांसद बनकर हेकड़ी दिखाता है और हर उस पढ़े-लिखे आम आदमी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके तय करना लगता है, जिसने हमेशा रोजगार पाने के
लिये पढ़ाई से लेकर हर उस ईमानदार सोच को जीया, जिससे उसका जीवन बेहतर हो सके। तो पहली बार केजरीवाल ने हर आम आदमी के घर के दरवाजे पर लगे चमकते पर्दे को उठाकर घर के अंदर की बदहाली को अपनी राजनीतिक बिसात में जगह दी । इसलिये बिजली-पानी का सवाल दिल्ली के माथे पर चुनावी जीत हार तय करने वाला हो गया, इससे किसी को इंकार नहीं है। लेकिन अब सवाल आगे है। इसे पूरा कैसे किया जायेगा। दिल्ली में किसी भी नौकरशाह या कांग्रेस-बीजेपी की कद्दावर-समझदार नेता से पूछ लीजिये। उसका जवाब होगा। असंभव। फिर वह मौजूदा व्यवस्था को समझाएगा। दिल्ली को खुद 900 मेगावाट बिजली पैदा करती है। जबकि दिल्ली की जरुरत छह हजार मेगावाट की है। बाकी वह निजी कंपनियों से खरीदती है। जिसमें अनिल अंबानी की बीएसईएस से 65 फिसदी तो टाटा से 30 फिसदी। लुटियन्स की दिल्ली के लिये एनडीएमसी 5 फिसदी बिजली देती है। कुल 27 पावर प्लांट हैं। एनटीपीसी, एनएसपीसी सरीखे आधे दर्जन
कंपनियों से भी करार हैं। सिंगरौली से लेकर सासन तक से बिजली लाइन दिल्ली के लिये बिछी है। हर निजी कंपनी से अलग अलग करार है। प्रति यूनिट बिजली एक रुपये बीस पैसे से लेकर छह रुपये तक खरीदी जाती है। औसतन चार रुपये प्रति यूनिट बिजली पड़ती है। और उसमें ट्रासंमिशन, लीकेज सरीखे बाकि खर्चे जोड़ दिये जायें तो पांच रुपये प्रति यूनिट बिजली की कीमत पड़ती है। अब इसे आधी कीमत में केजरीवाल बिना सब्सिडी कैसे लायेंगे। जाहिर है इसी तरह 700 लीटर मुफ्त पानी देने का सवाल भी राजनेताओं के आंकड़े और नौकरशाहों के गणित में दिल्ली सरकार के सस्पेंस को बढ़ा सकता है कि कैसे यह सब पूरा होगा। लेकिन अब जरा यह सोचे कि जो राजनीति हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के बाहरी दरवाजों पर लगें पर्दे को उठाकर भीतर झांक कर सरोकार बनाने को ही राजनीति बना लें तो क्या इन आंकड़ों का कोई महत्व है। तो जरा इसके उलट सोचना शुरु करें। मुख्यमंत्री पद की शपद लेते ही केजरीवाल 700 लीटर मुफ्त पानी देने का एलान कर देते हैं।

इसका असर क्या होगा। पानी की सप्लाई तो जारी रहेगी। हां जब बिल आयेगा तो उसमें 700 लीटर पानी का बिल माफ होगा। जाहिर है जितना पानी लुटियन्स की दिल्ली, पांच सितारा होटल और दक्षिणी दिल्ली के 3 फिसदी लोग [ दिल्ली की जनसंख्या की तुलना में ] पानी का उपभोग करते हैं, अगर उनमें से सिर्फ 9 फिसदी पानी की कटौती कर जाये या फिर उनके बिल में 12 फीसदी का इजाफा कर दिया जाये तो समूची दिल्ली को 700 लीटर मुफ्त पानी देने में केजरीवाल को कोई परेशानी नहीं होने वाली। और मुख्यमंत्री बनने के 48 घंटे के भीतर ही अगर केजरीवाल बिजली बिल में भी 50 फिसदी की कटौती का एलान कर देते हैं तो क्या होगा। बिजली सप्लाई में तो कोई असर नहीं पड़ेगा। हां, कुछ निजी कंपनियां सिरे से यह सवाल उठा सकती है कि उनकी भरपाई कैसे होगी। और उसके बाद केजरीवाल अगर निजी कंपनियों को कहते हैं कि या तो बिल कम करो या बस्ता बांधो तो क्या होगा। जाहिर है कोई निजी कंपनी अपना बस्ता नहीं बांधेगी। और हर कीमत पर केजरीवाल की बात को मानने लगेगी। क्योंकि देश में बिजली की दरें किस आधार पर तय होती हैं, यह आज भी किसी को नहीं पता। फिर दिल्ली को ही सासन से सप्लाइ होने वाली बिजली एक रुपये बीस पैसे प्रति यूनिट मिलती है और सिंगरौली से मिलने वाली बिजली 3.90 पैसे प्रति यूनिट। इतना अंतर क्यों है, यह भी किसी को नहीं पता। ध्यान दें तो जबसे देश में बिजली निजी क्षेत्र को सौंपी गयी और उसके बाद
सिलसिलेवार तरीके से कोयला से लेकर पानी और जमीन से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर त निजी कंपनियों के जिस सस्ते दाम में दे दिया गया और उस पर बैक ने भी बिना कोई तफतीश किये सबसे कम इंटरेस्ट पर बिजली कंपनियों को रुपये बांटे वह अपने आप में एक घोटाला है। और इसका सबूत कोयला खादानों के बंदर बांट से लेकर झारखंड सरकार के सीएम रहे मधु कोड़ा पर लगे आरोपों के साये में देखा-समझा जा सकता है। इतना ही नहीं एनरॉन इसका सबसे बडा उदाहरण है कि कैसे वह खाली हाथ सिर्फ प्रोजेक्ट रिपोर्ट के आधार पर अरबों रुपये लूटने की योजना के साथ भारत में कदम रखा था। और एनरान के बाद टाटा से लेकर अंबानी समेत देश के टापमोस्ट 22 कंपनिया क्यो बिजली उत्पादन से जुड़ी है। और कैसे देश में सौ से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस राजनेताओं के पास है। जिसमें कांग्रेस के राजनेता भी है और भाजपा के भी। और यह सभी बेहद कद्दावर राजनेता हैं। तो फिर बिजली उत्पादन से जुडकर बिजली बेचकर मुनाफा कमाने के खेल में कितना लाभ है।

अगर इसके आंकडे पर गौर करें तो बिजली उत्पादन करने वाली हर कंपनी के टर्न ओवर में 80 फीसदी तक का मुनाफा बिजली बेच कर कमाने से है। कोयला खादान किस कीमत में दिये गये और कैसी कैसी
कंपनियों के दिये गये यह कोयला घाटाले पर सीएजी की रिपोर्ट आने के बाद किसी से छुपा नहीं है। बेल्लारी से लेकर झारखंड और उडीसा तक में कैसे निजी कंपनियो के विकास मॉडल या इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर औने पौने दाम में कैसे खनिज संपदा लूटी जा रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। और इसकी एवज में कैसे राजनितिक दलों या फिर राजनेताओं की अंटी में कितना पैसा जा रहा है, जो चुनाव लडते वक्त निकलता है यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो कैसे मौजूदा वक्त में संसद के भीतर ही चुने हुये सौ से ज्यादा सांसदों के पीछे कोई ना कोई कारपोरेट है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो फिऱ जो कारपोरेट और निजी कंपनियां भारत में क्रोनी कैपटिलिज्म से आगे निकल कर खुद ही सत्ता में दस्तक दे रहा है, वह कैसे और क्यो नहीं केजरीवाल की बात मानेगा। असल में कांग्रेस और भाजपा दोनों यह मान कर सियासत कर रहे हैं कि पारंपरिक तौर तरीके में केजरीवाल फंसेंगे। लेकिन दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस सच को समझ नहीं पा रहे हैं कि देश में विकास के नाम पर या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर जिस तरह की जो नीतियां बनी और उन्हें जिस आंकड़े तले परोसा गया, वह देश के उन बीस फिसदी लोगों की सोच से आगे निकल नहीं पाया जो उपभोक्ता हैं या फिर कमाई के जरिये बाजार अर्थव्यवस्था के नियम कायदों को बनाये रखने में ही खुद को बेहतर मानते हैं और सुकून का जीवन देखते हैं। बाकि हाशिये पर पड़े देश के अस्सी फीसदी के लिये जो कल्याण योजनायें निकलती हैं, वह देश की उसी रुपये से बांटी जाती है जिसे निजी कंपनियों या कारपोरेट के आसरे कही ज्यादा कमाई की गई होती है। इसलिये दिल्ली को लेकर केजरीवाल की रफ्तर सिर्फ बिजली या पानी तक रुकेगी ऐसा भी नहीं। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और डीटीसी से लेकर मेट्रो तक में 72 हजार लोग जो कान्ट्रेक्ट पर काम कर रहे हैं, सभी को स्थायी भी किया जायेगा और जो झुग्गी झोपडी राजनीतिक वायदो तले अपने होने का एहसास करती थी उन्हे खुले तौर पर मान्यता भी मिल जायेगी। यह सब केजरीवाल हफ्ते भर में कर देंगे। फिर सवाल होगा जो पैसा दिल्ली के विकास या इन्फ्रास्ट्रक्चर को पूरा करने के नाम पर खर्च नीतियो के जरीये किया जाता रहा वह मोहल्ला सभाओं के जरीये तय होगा तो बिचौलिये और माफिया झटके में साफ हो जायेंगे, जिनकी कमाई का आंकड़ा कमोवेश हर विभाग में एक हज़ार करोड़ से 20 हजार करोड़ तक का है। जाहिर है लूट की राजनीति से इतर केजरीवाल की सियासी बिसात जब दिल्ली में अपने मैनिफेस्टो को लागू कराने के लिये उन्हीं कारपोरेट और निजी कंपनियों पर दबाब बनायेगी तब दिल्ली छोड़कर बाकि देश में लूट में खलल ना पडे इसलिये वह समझौता कर लेंगी या फिर कांग्रेस और भाजपा के दरवाजे पर जा कर दस्तक देंगी कि सरकार गिराये नहीं तो लूट का इन्फ्रास्ट्रक्चर ही टूट जायेगा। जाहिर है इन हालात में केजरीवाल की सरकार भी अगर गिर जाती है तो फिर चुनाव में देश का आम आदमी क्यों सोचेगा। कांग्रेस को यह डर होगा। लेकिन जिस रास्ते केजरीवाल की सियासी बिसात बिछ रही है, उसमें कांग्रेस या भाजपा अब छोटे खिलाड़ी हैं। एक वक्त के बाद तय देश के उसी कारपोरेट को करना है जिसने मनमोहन सरकार पर यह कहकर अंगुली उंठायी कि गवर्नेंस फेल है और वह नरेन्द्र मोदी के पीछे इसलिये खड़ा हो गया कि गवर्नेंस लौटेगी। लेकिन इस सियासी दौड़ में किसी ने हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के पर्दे के भीतर झांक कर नहीं देखा कि हर घर के भीतर की त्रासदी क्या है। पहली बार वह दर्द उम्मीद बनकर केजरीवाल के घोषणापत्र तले उभरा है और संयोग से उस बिसात को ही बदल रहा है जिसे आजादी के बाद से किसी राजनीतिक दल ने नहीं छुया। तो लडाई तो वाकई दिये और तूफान की है। और तूफान पहली बार अपनी ही बिसात पर फंसा है।



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