Thursday, October 17, 2013

काठ के घोड़े पर सवार तीसरा मोर्चा.........! ! !? ? ?( mere guru ji ka lekh hai , aap bhi padhiye !! sabhaar !!)


डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Oct 12, 2013, 06:48AM IST


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काठ के घोड़े पर सवार तीसरा मोर्चा
राजनीति भी अजीब बला है। अभी पहले और दूसरे मोर्चे का ही कुछ पता नहीं है कि कौन किधर जाएगा, लेकिन तीसरे मोर्चे की खिचड़ी पकने लगी है। जैसे कभी कर्नाटक के प्रांतीय नेता देवेगौड़ा और दिल्ली के ड्राइंग रूम नेता इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बन गए थे। वैसे ही अब चार-पांच प्रांतीय नेता भी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं। वे सोचते हैं कि वे प्रधानमंत्री का सपना क्यों नहीं देखें? जब मनमोहन सिंह जैसा अराजनीतिक आदमी भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है, तो वे तो सचमुच के नेता हैं। अपने दम-खम से मुख्यमंत्री बने हैं। मुख्यमंत्री की अगली पायदान प्रधानमंत्री ही है।
प्रधानमंत्री पद की यह दौड़ मुलायमसिंह यादव, नीतीश कुमार, जयललिता और नवीन पटनायक को एक ही जाजम पर इक_े होने के लिए उकसा रही है। इन नेताओं के लिए जाजम बिछाने का काम कर रहे हैं, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता प्रकाश करात, सीताराम येचूरी और एबी वद्र्धन! ये सब 30 अक्टूबर को दिल्ली में एक रैली करेंगे और उसे मुखौटा पहनाएंगे, धर्मनिरपेक्षता का या सेक्युलरिज़्म का!
उनसे कोई पूछे कि किसकी धर्मनिरपेक्षता ज्यादा प्रामाणिक है? कांग्रेस की या इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की? यदि आप एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई मोर्चा बनाना चाहते हैं, तो आपका यह मोर्चा कहीं कांग्रेस की कार्बन कॉपी तो नहीं बन जाएगा? वह भी धर्मनिरपेक्ष और आप भी धर्मनिरपेक्ष?

इसका जवाब आप यह दे रहे हैं कि अभी हम मोर्चा-वोर्चा नहीं बना रहे हैं। सिर्फ समानधर्मा पार्टियों की एक रैली कर रहे हैं। इस पर पूछा जा सकता है कि कौन सा धर्म और कौन सा समानधर्म? क्या इन पांचों पार्टियों का धर्म एक ही है, सिद्धांत एक ही है, नीतियां एक ही हैं, कार्यक्रम एक ही हैं? सिद्धांत और नीतियों की बात जाने दें। इस मामले में सभी पार्टियां या तो दिवालिया हो चुकी हैं या फिर जब जैसी जरूरत पड़ती है, वे वैसा सिद्धांत गढ़ लेती हैं।
जयललिता के मंत्री वाजपेयी सरकार की शोभा बढ़ा चुके हैं। खुद नीतीश कुमार वाजपेयी मंत्रिमंडल में रह चुके हैं। यही हाल नवीन पटनायक की पार्टी का रहा है और जहां तक मुलायम सिंह का प्रश्न है, उन्होंने कांग्रेस का साथ देने में मुलायमित की हद कर दी थी। जब भारत-अमेरिका परमाणु सौदे के विरोध में 2007 में कम्युनिस्ट पार्टियों ने कांग्रेस को समर्थन देना बंद किया तो कांग्रेस की द्रौपदी को चीरहरण से बचाने के लिए मुलायम सिंह उसके कृष्ण बनकर सामने आ गए थे, जबकि वे उस सौदे को बराबर राष्ट्र-विरोधी बताते रहे थे।
उस समय भी कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी पार्टी एक 'संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधनÓ की सदस्य थीं। सपा ने खेरची व्यापार में विदेशी विनियोग के सवाल पर भी पल्टी मार दी थी और राष्ट्रपति के चुनाव में ममता बनर्जी को गच्चा देकर प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया था। इधर नीतीश ने भी भाजपा से गठबंधन तोड़कर जबर्दस्त कलाबाजी दिखाई है।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि ये नेता कहते हैं कि गठबंधन तो चुनाव के बाद बनेगा तो मानना पड़ेगा कि ये लोग काफी यथार्थवादी हैं। एक-दूसरे पर विश्वास जमने के लिए आखिर कुछ समय तो चाहिए और फिर गठबंधन के लिए कोई ठोस मुद्दा तो होना चाहिए। इन सब दलों के पास सबसे ठोस मुद्दा बस एक ही है-सत्ता! सिद्धांत, नीति और कार्यक्रम तो मुखौटा है। वे जानते हैं कि तथाकथित तीसरा मोर्चा खुद तो सरकार बना ही नहीं सकता। वह केवल इधर या उधर चिपककर किसी भी सत्तारूढ़ दल या मोर्चे के साथ लटक सकता है। इसीलिए उसके सदस्य अपने विकल्प बंद क्यों करें? चुनाव के बाद जिस पार्टी को जो मौका मिलेगा, उसे वह भुनाएगी।

यूं भी इस तथाकथित मोर्चे में जो क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हो रही हैं, उनकी अखिल भारतीय हैसीयत क्या है? आज की लोकसभा में सपा के 22, जनता दल(यू) के 20, माक्र्सवादी पार्टी के 16, बीजू जनता दल के 14, अन्नाद्रमुक के 9, कम्युनिस्ट पार्टी के 4, देवेगौड़ा जनता दल का 1 और अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के तीन-चार सदस्य मिलकर कुल 100 सदस्य भी नहीं बनते। इधर बिहार  व उत्तरप्रदेश की राजनीति ने जैसा मोड़ लिया है और माक्र्सवादी पार्टी का जैसा हाल है, उसे देखकर लगता है कि तीसरे मोर्चे को चुनाव में कहीं मोर्चा ही न लग जाए? चौबेजी छब्बेजी बनने जा रहे हैं। कहीं वे दुबेजी न रह जाएं।

इसके अलावा इस संभावित तीसरे मोर्चे के घटकों में आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि उनमें तालमेल बिठाना आसान नहीं है। पहला उत्तरप्रदेश में सपा अपनी सीटें कम्युनिस्टों को देने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है जबकि कम्युनिस्ट पार्टियां देश के सबसे बड़े प्रदेश में अपना मजबूत खंभा गाडऩे के लिए बेताब हैं। दूसरा, तीसरे मोर्चे में अगर सपा शामिल होगी तो बसपा के आने का सवाल ही नहीं उठता। एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहेंगी? तीसरा, यदि इस मोर्चे की कर्णधार माक्र्सवादी पार्टी है तो ममता की तृणमूल कांग्रेस तो अपने आप अस्पृश्य हो गई। चौथा, जयललिता का अभी यही पता नहीं कि वह 30 अक्टूबर की रैली में भी आएंगी कि नहीं तो फिर मोर्चे में शामिल होना तो दूर की कौड़ी है।
पांचवां, लालू की गिरफ्तारी ने नीतीश के लिए कांग्रेस के द्वार खोल दिए हैं। जनता दल(यू) और कांग्रेस में आजकल मधुरता का आदान-प्रदान प्रचुर मात्रा में हो रहा है। छठा, मोर्चे में इक_े होनेवाले एकाध नेता को छोड़कर सभी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानते हैं। एक ही मांद में आखिर कितने शेर रहेंगे? सातवां, मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है, जो आज की जनभावना को स्वर दे सके। आज असली मुद्दा भ्रष्टाचार है, सांप्रदायिकता नहीं। आज राष्ट्र एक ऐसे नेता की तलाश में है, जो भ्रष्टाचार-विरोध का सशक्त प्रतीक बन सके। क्या इनमें से कोई नेता ऐसा है, जो इस राष्ट्रीय शून्य को भर सके?

ऐसी हालत में कहीं ऐसा न हो कि ये क्षेत्रीय दल चुनाव के बाद मरणासन्न हो जाएं। इस संभावना पर भी इन दलों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता अब काठ का घोड़ा बन गया है। अब उसे पीटते रहने से कोई फायदा नहीं दिखता। उस पर सवार होकर यह तीसरा मोर्चा कहां जाएगा? इसमें शक नहीं कि इस मोर्चे में ऐसे नेता भी हैं, जो दो बड़े दलों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के मुकाबले कहीं अधिक अनुभवी और योग्य हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे आज के वक्त की कसौटी पर खरे उतरते हैं?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष


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