Tuesday, April 2, 2013

" ये क्या हो रहा है - भाई - ये क्या हो रहा है " ? ?

           भारत के सभी नागरिकों और विश्व के सभी पाठकों को मेरा हार्दिक नमस्कार !!
             आज तीन चौंकाने वाले समाचार मिले हैं जो आपके साथ बांटना चाहता हूँ ! मुलाहिज़ा फ़रमाइए………… 
                               " आपणी मुम्बई " की महिला कार्पोरेटरों ने सरकार से ये मांग की है कि बाज़ार में महिला पुतलों को अधोवस्त्र पहनाकर ना टांगा जाए ! क्योंकि  उन्हें शर्म आती है और राह चलते आवारा लोग इस कारण से महिलाओं पर फब्तियां कसते हैं !
               महिलाओं की ये विरोधाभासी बातें
समझनी ज़रा मुश्किल लगती हैं !! स्वयं तो वे जैसे चाहें वस्त्र पहनकर बाहर निकलना चाहती हैं और पुतलों को मर्यादित वस्त्र पहनाकर टांगने या खड़ा करने का कहती हैं……। भई वाह !! 
               दूसरा समाचार दिल्ली में हुए बसपा नेता " भारद्वाज-हत्याकांड " की जांच से बाहर आया है कि " स्वामी प्रतिमानंद ने दो करोड़ की सुपारी दी थी " !!?? जिनका हरिद्वार के कनखल में आश्रम है और वो हरियाणा में ज़मीन खरीदना चाहता था !! जय हो भारतीय बाबाओं की !! इस घटना को सुनते ही मुझे मेरे पिता जी का एक कथन याद आ गया कि " बनारस के ठगों और हरिद्वार के बाबाओं " से हमेशां चौकस रहना !! ??? मैं भी आपको यही सलाह दूंगा !!

                      और तीसरा चौंकाने वाला समाचार ये है…………… स्कूल चले हम ….!
सरकार का बच्चों को स्कूल भेजने के नारे के पीछे कितने लोगों का पेट पलता है, इसका नमूना गली- गली में खुले स्कूलों और इन स्कूलों में चलनेवाली ड्रेस, कापियां, किताबें, बेचने वाली संस्थाओं से पूछिये. यकीन मानिये, इस धंधे में इतना मुनाफा है की चंद दिनों की कमाई में यह दूकानदार महीनों चैन से खा-पी सकते हैं . ऐसी कई किताबें इन दिनों आपको खरीदनी होगीं जो शायद आप फ्री में भी न लें. स्कूलों का आतंक इतना है की अपने बच्चों को यहाँ पढ़ना है तो उनकी सुनना ही होगा.

पालकों के लिए यह समय दुविधा भरा है. स्कूलों के खुलने के साथ ही उनकी जेबें हलकी होने का सिलसिला शुरू हो जाता है जो पूरे सालभर चलता है. कॉपी, किताबों से लेकर फीस में अच्छों की हालत खराब हो रही है. बड़ी क्लासों की बात छोड़ दें तो छोटी क्लास की किताबें दो से ढाई हजार में मिल रही है. केवल बुक्स. इसके अलावा बच्चों को लुभाने वाटर बेग, पेंसिल, कोवेर्रोल वगेरा का खर्च अलग.

स्कूल प्रबंधन भी आपसे ही चलेगा, सो अनुदान की व्यवस्था पालकों के जिम्मे होती है. यहाँ सर देख कर टोपी पहना दी जाती है. सामान्य तोर पर ४ से ६ हजार मामूली बात है. स्कूल के हिसाब से दाम देने पढ़ते हैं. हां, ये जान लें की इन पर किसी का अंकुश नहीं है.न प्रशासन का, न शासन का….. शासन तो कई स्कूलों के मालिक चलातें है. सो इन्हें पूरी छुट है लूटने की. यह तर्क दे सकतें हैं की स्कूल की व्यवस्था, आदि में बहुत खर्च होता है जिसे हम पालकों से नहीं तो फिर किससे वसूल करेंगे?

यही वजह है की स्कूल छुतियों का पैसा भी पालकों से वसूल रहे है. वो भी एक महीने स्कूल की आड़ में तीन महीने की फीस ली जा रही है. यानि अवकाश में भी कमाई.

आरटीआई का मजाक बन गया. किसी का ध्यान नहीं है.मार्च में ही कई स्कूलों में प्रवेश फुल के बोर्ड लगा दिए थे. मिशनरी स्कूल तो किसी से नहीं डरते. ऐसे में ‘स्कूल कैसे चलें हम’ कहना बेहतर लगता है.

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