Thursday, December 6, 2012

" राजस्थानी परम्पराओं का खज़ाना "......!!

  
राजस्थानी लोकगीतों के सन्दर्भ में पाश्चात्य विद्वान "टेसीटोरी' ने भावविभोर होकर कहा था। ""इन गीतों में एक-एक भाव पर सारे संसार का साहित्य तुच्छ है। पारिवारिक सुख-दुख, हर्ष, शोक एवं मिलन विरह के बीच सदैव प्रेम की सूक्ष्म पर प्रबल लौ जलती रही है जो सदियों तक विदेसी अन्धड़ों के बीच भी निष्कम्प पथ पर अग्रसर रही है और यही इन गीतों की सार्थकता है, सफलता है।''

ये गीत हमारे वेद है, शास्र है, धर्म ग्रन्थ हैं। जीवन है व प्रत्येक अणु, अणु की धड़कन है। मनुष्य का जीवन हमेशा प्रकृति व समाज से सम्बद्ध उसने हमेसा प्रकृति को अपनी चेतना का एक अखण्डित तत्व माना है। जहाँ वह प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहता है वहीं उसका शकालु ऱ्हदय इस बात को स्वीकार करता है कि उसके अनुनय-विनय से प्रकृति संतुष्ट हो उसका कहा मानेगी, उसे संकट से उबारने में सहायक होगी। फलस्वरुप मानव आदिम अवस्था से ही जादू-टोने, टोटके, धार्मिक अनुष्ठान, भूत-प्रेत, पिशाच आदि को संतुष्ट करता आ रहा है। जहाँ से मानव की शारीरिक शक्ति चुक जाती है, वहीं से वह इन जादू टोनों के घेरे में फंस जाता है। आदिम मानव की धार्मिक भावना का यही मूलाधार है। प्रकृति की अपनी चेतना का अंश समझने के कारण ही वह अपने हर आवश्यक कार्य से पहले देवी-देवताओं को मानता है, उनके प्रति गाता है, नाचता है, उत्सव मनाता है। इन सब कार्यों के पीछे उसकी स्वंय की, परिवार की और समाज की स्वार्थपरक भावना बोल रही होती है।

विवाह सामाजिक व्यवस्था की सर्वाधिक आवश्यक कड़ी है। समाज एवं परिवार का मूलाधार ही विवाह है। वह गृहस्थी का मेरुदण्ड है, जिस पर सारे वि का कार्यकलाप व्यवस्थित है। तो फिर इस शुभ कर्म को निर्विध एवं सकुशल सम्पन्न करने के लिए क्यों ने वह प्रकृति की अराधना करे और ईष्ट देव को संतुष्ट करे। भारतीय सदा से धर्मपरक रहा है। देवी-देवता उसके अवलम्ब हैं और उन्हें संतुष्ट करना उसका कर्तव्य है। विवाह से पहले अपने कुलदेव "मायाजी' को संतुष्ट करने के लिए अपने परिवार को साथ ले सामूहिक रुप से स्तुति करता है। इन गीतों को गाते समय प्रकृति का अणु-अणु स्पन्दित होने लगता है।


म्हें तो सगलाई देवता भेट्यां रे भंवरा।
म्हारे मायाजी रे तोले कोई नहीं भंवरा।
म्हे तो सगलाई कुलदेव भेंट्या रे भंवरा।
म्हारे भोपाजी रै तैल सिंदूर चढ़े रे भंवरा।
म्हें तो सगलाई देवां ने भेंट्या रे भंवरा।
म्हारे मायाजी रे तोले कोई नहीं रे भंवरा।

मायाजी के इसी रुप में इस देवता की जो कि उसकी मानसिक परितुष्टि का एक सबल व सशक्त प्रतीक है, प्रार्थना करते हुए वह हृदय में उसे सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए अपने हृदयोदगारों को मुखरित करता है। अपनी व अपने परिवार की कुशलता चाहते हैं। यहीं नहीं वह आदिदेव विघ्ननिवारक गजानन की भी ध्यावना देना नहीं भूलता, उसकी प्रार्थना करता है।


हालो विनायक आपां जोशीड़ा रे हांला
चौखा सा लगन लिखासां है। म्हारो बिड़द विनायक।
चालो विनायक आपां बजांजा रे हालां
चौका सा सालूडां मोलवसां हे। म्हारो विड़द विनायक।

विवाह उनका परित्र कार्य है, जहाँ उससे पूर्व वह अनिष्ट के निर्वाणार्थ "मायाजी' तथा "गणेश' की पूजा करना नहीं भूलता। वहां सलल्ज नाजुक सकुमारियाँ दूल्हे की बारात में जाते सूर्य की प्रचण्ड किरणों से प्रभावित होकर उससे शिकायत करना भी नहीं भूलती और साथ ही साथ चेतावनी भी देती जाती है, कि हम तो खैर यह परेशानी सह भी लेंगे पर तुम्हारे साथ मोतियों से महगें तुम्हारे बाबासा भी है औऱ लालों से तोलने योग्य माताजी किस प्रकार यह गर्मी सहन करती होगी। जरा अपने मामा, मामी और अन्य सम्बन्धियों के कष्ट का भी तो ख्याल करो -


घाम पड़े, धरती तपै रे, पड़े नगांरा री रोल
भंवर थारी जांत मांयने।
बापाजी बिना कड़ू चालणू रे
बापा मोत्यां सूं मूंगा साथा।
भंवर थारी जांन मांयने।
माताजी बिना केडूं चालणू रे
माताजी हरका दे साथ।
भंवर थारी जान मांयने।
घाम पड़े, धरती रपै रे, पड़े नागरां री रौल
भवंर थारी जांन मांयने।

मगर इस गर्मी और परेशानी में भी उसकी भौजाइयां एवं नवयुवतियां उससे चुहल करने का मौका नहीं चूकती। चाहे गर्मी पड़े, चाहे सर्दी, तकलीफ हो या कष्ट इन ठिठोलियों के प्रकाश में कपूर सी उड़ जाती है। शायद उसे चेतावनी देने पर बुरा लगा हो, शायद वह इसे दूर करने की उधेड़बुन में कुछ परेशानी-सा महसूस कर रहा है, क्यों जरा से कष्ट के लिए उसकी आत्मा को तकलीफ दी जाए। लो उधर दूल्हे का ससुराल भी तो न आने लगा। बस बहाना मिल गया और एक स्वर से मधुर धवनि वातावरण में तैरने लगी। देख, देख ! वह रही तेरी ससुराल, जिसकी प्रशंसा करते तू थकता नहीं था। अब देख तो सही कैसा न आ रहा है, मानों जोगियों का अस्त-व्यस्त सा डेरा उतरा हो। यह कोई ससुराल होने लायक है? और तेरे ससुर को तो देख, यह आदमी है या पड़गों का बौराद मोटा-सा, भद्दा थुलथुल-सा और तेरी सास तो भैंस-सी है। मैं तो उनकी प्रशंसा बहुत किया करता था। बस ऐसे ही तेरे सास-ससुर, और तेरा साला तो "मडके' का भील सा न आ रहा है, और साली बराबर जोगियों की बदरुप फूहड़ लकड़ी-सी। देख तो सही आंखे तो खोल -


चढ़ लाडा, चढ़ रे ऊँचे रो, देखाधूं थारो सासरो रे,
जांणे जाणें जोगीड़ो रा डेरा, ऐंडू के शार्रूं सासरो रे।
चढ़ लाड़ा चढ़ रे ऊँचो रो, देखांधू थारा सुसरा रे,
जाणें जाणें पड़गो रा वौरा, ऐड़ा रे थारा सुसरा रे।
चढ़ लाड़ा चढ़ रे ऊँचे रे देखांधू थारो सासरो रे,
जाणें जाणें पड़गा री "बोंरी' ऐड़ी तो थारी सासूजी रे।
चढ़ लाड़ा चढ़ रे ऊँचे रो, देखांधू थारो सासरो रे,
जाणें जाणें जोगीड़ा री छोरी, ऐड़ी तो थारी साली रे।

कितनी गहरी व प्रबल अभिव्यंजना है। हास्य का कैसा सुन्दर वातावरण-सा बना देने की क्षमता है। न शब्दों में और यह सारे गीत विषाद के घटाटोप को उजागर करने के लिए अकेला ही काफी है।

उनका दूल्हा कोई "एरा-गैरा' नहीं, मोतियों से भी महंगा है। वह यों ही भिखारी नहीं, कि ससुराल तक पैदल चला जाए। वह फूलों से भी कोमल और कमल से भी निर्मल है। ससुराल के पास ही बाराती ने गांव के बाहर तालाब के किनारे अच्छी-सी ठोड़ पर उतरकर विश्राम कर रहे हैं, और वधू-गृह को कहला भेजती है -


ऐली पैली सखरिया री पाल
पालां रे तंबू तांणिया रे।
जाये वनी रे बापाजी ने कैजो, के हस्ती तो सामां मेल जो जी।
नहीं म्हारां देसलड़ा में रीत, भंवर पाला आवणों जी।
जाय बनी रा काकाजी ने कैजो
घुड़ला तो सांमां भेजजो जी
नहीं म्हारे देशां में रीत, भेवर पाला चालणों जी
जाय बनीरा माता जी ने कैजो
सांमेला सामां मेल जो जी
नहीं म्हारे देशलड़ां में रीत
भंवर पाला आवणों री।

और दूल्हे के सास-ससुर हर्षित हो मोतियों से जड़कर, सोने के होदे से सुसज्जित हाथी और घोड़े अगवानी के लिए भेजते हैं।

राजस्थानी रमणियों की धारण शक्ति प्रबल रही है। उन्होंने जीवन के प्रत्येक छोटे से छोटे कार्य को गीतों में बांधकर सदैव के लिए चिरस्थायी बना दिया है। उनकी पैनी न से जीवन का कोई भी अंग अछूता नहीं बचा है और इन गीतों की इतनी व्यापकता होने पर भी कहीं शिथिलता, फूहड़पन और कृत्रिमता का लेश भी दृष्टिगोचर नहीं होता, बल्कि इसके विपरीत हमें इन गीतों में आशा का सुखद संदेश एवं प्रबल भावाभिव्यक्ति के साथ-साथ राजस्थान के चेतन हृदय की धड़कन स्पष्ट सुनाई पड़ती है। यही इन गीतों की सफलता होने के साथ-साथ सार्थकता भी है।

विवाह की तैयारियां हो गई। वर-वधू दोनों मण्डप में आ गए। पुरोहित के मुँह से आशीर्वचन निकलते जा रहे थे। इधर वर पक्ष की नाजुक बहुएं नयी नवेली दुल्हन को सम्बोधन कर सान्तवना देती हुई कहती है - बहूं ! तू घबराना मत। यह मत जानना कि दूल्हा अकेला है। इसके पीछे सारा भरा-पूरा परिवार है, सभी एक से एक बढ़कर हैं। जहाँ इसका काका हवलदार है, तो चूड़ीदार पजामा पहिने वे सज्जन चोपदार हैं। कोई हकिम है तो कोई किल्लेदार है। इसके साथ के बाराती जहाँ मजेदार हैं तो उनकी औरतें भी एक से बढ़कर एक हैं। बहू ! इसके साथ देख तो सही, कितने साथी आए हैं? ये सभी तो बिखरे हुए फूलों की तरह न आ रहे हैं। समष्टि रुप में एक गजरे के गूंथें हुए कुसुम हैं, जो एक होकर भी अनेक हैं और अनेक न आने पर भी एक हैं।


बनी ! थूंई मत जाणे बना सा ऐकला रै।
झमकू ! थूंई मत जाणे ""राइवर'' ऐकला रै!
साथे चूड़ीदार, चौपदार, हाकिम ने हवालदार,
कागदियों से कांमदार, काका ऊभा किल्लेदार।
भौमा ऊबा मज्जादार, सखाया सब लारोलार
फूल बिखौरे गजरों गंधियों रै
बनी थूंई मत जाणे बनासा एकला रै।

गजरे और फूलों की उपमा तो शायद विश्व-साहित्य में भू ढूंढ़ने पर न मिलेगी।

विवाह समाप्त होता है। सारे रीति-रस्म एक-एककर समाप्त होते हैं और वह घड़ी आ पहुँचती है, जिसकी बहुत दिनों से धड़कते हृदय से प्रतीक्षा हो रही थी। बेटी की विदाई की बेला यह गीत इतना मार्मिक व करुण है कि मानव तो क्या सारी प्रकृति की आँखों में आंसू छलछला आते हैं। और जब ""कोयल बाई सिध चाल्या'' गीत गाया जाता है तो, सारा वातावरण एक बारगी ही करुणा और शौक से आप्लावित-सा हो जाता है। तो इस गीत में जो माधूर्य, मानव की सहज प्रेम भावना, स्नेह और सहानुभूति और जो मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है वह भारत तो क्या सारे वि के श्रेष्ठ काव्य में मिलना मुश्किल है। विदाई देते समय उसकी सहेलियां हिचकोले भरती हुआ गाती हैं -


म्हें थांने पूछां म्हारी धीयड़ी
म्हें थांने पूछां म्हारी बालकी
इतरो बाबा जी रो लाड़, छोड़ र बाई सिध चाल्या।
मैं रमती बाबो सो री पोल
मैं रमतो बाबो सारी पोल
आयो सगे जी रो सूबटो, गायड़मल ले चाल्यो।
म्हें थाने पूंछा म्हारी बालकी
म्हें थाने पूंछा म्हारी छीयड़ी
इतरों माऊजी रो लाड़, छोड़ र बाई सिध चाल्या।
आयो सगे जी रो सूबटो
हे, आयो सगे जी रो सूबटो
म्हे रमती सहेल्यां रे साथ, जोड़ी रो जालम ले चाल्यो।
हे खाता खारक ने खोपरा
रमता सहेलियां रे साथ
मेले से हंसियों लेइ चाल्यों
हे पाक्या आवां ने आबंला
हे पाक्यां दाड़म ने दाख
म्लेइ ने फूटर मल वो चाल्यो
म्हें थाने पूंछा म्हारी धीयड़ी
इतरों बापा जी रो लाड़, छोड़ने बाई सिध चाल्या।

हर्ष व विषाद के झूले में झूलती हुई बहू सास की तरफ रवाना हो जाती हैं। बांगा मांयली कोयल नया नीड़ बसाने की पंख फड़फड़ाकर उड़ जाती है, और पीछे छोड़ जाती है बचपन की यादें, मीठे बोल, और एक मधुर सुखद करुणा मिश्रित याद। ससुरार पहुंचकर उसे पिछले सारे समारोह तोड़कर नये सम्बन्धों से अपना तारतम्य जोड़ना पड़ता है, और इस पुरानी याद को जबरदस्ती तोड़कर नये नीड़ के सम्बन्धों की तरफ देखना इनती छोटी-सी घटना को भी लोक कवियों ने नहीं छोड़ा है। ससुराल की बहुँए, उसकी जेठानियां, ननदें और नयी सहेलियां बहूं को समझाती हुई कहती हैं - बहूं ! पीहर का मोह छोड़, अब ससुराल से स्नेह जोड़। तुम्हारे पिता तो वहीं विवश से रह गए, अपने अपने ससुर के हृदय में ही पिता की प्रतिच्छाया निहार ! अपनी माँ का मोह छोड़ने में ही कुशल है। इधर देख, ये तेरी सास है, माँ से बढ़कर हैं। इनमें माँ का रुप देख और देख तो सही तेरी सहेलियां हैं, ये देवर नहीं ! भाई हैं, ये नन्द नहीं, बहिनें हैं। पूरा परिवार यहां है, यहां पर भी देख तो सही -


झालो अलगियों तो ऐयूं जालो मांए
के धिया बाई सा रो पीवरियो तो एयूं मीडक मांए
सासूरियूं तो लीन्यूं नजरा मांए
बाइसा रो बापा जी तो रेग्या मीडंक भांए
ससुरा जी तो लीन्या नजरां मांए
सासू जी ने लीवों नजरां मांए।
बाई री साथणियां तो रैगी माड़क मांय
नणदल बाई सा ने लेवो नजरां मांए।

हर्ष व बधाई के साथ दूल्हा अपनी नयी दुल्हन के साथ घर पहुंचता है, सभी हर्षमग्न हैं। आज परिवार में एक नया प्राणी बढ़ा है। देवर को भौजाई मिली है, और जेठानियों को नई देवरानी। माँ-बाप का तो कहना ही क्या। उनका बेटा आज वास्तविक रुप में गृहस्थ में प्रवेश करता है, और बहू क्या लाया है, चांद का टुकड़ा समझ लो। साथी ही साथ कितना सारा दहेज ले आया है बेटा। मना करते-करते भी तो समझी ने कितना सारा भेज दिया है, साथ में। दुलहन तो लाया ही है साथ में "अणुअर' भी लाना नहीं भूला है। साथ में दुलहन तो लाया ही है, सबसे ज्यादा उत्कण्ठा है छोटी ननद की। उसकी भौजाई अपने बाप के घर से क्या-क्या ले आई है।


म्हारों बालूड़ों ग्यो तो सासरे, जरमरियो
काईं काईं लायो रे वीरा डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो
लाड़ी आयो ने अनुअर डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो
बेड़ो लायो ने थाली डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो
लोटो लायो ने लोटी डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो
सीरस लायो ने ढ़ाल्यो डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो
म्हारो बालूड़ो ग्यो तो सासरे ... जरमरियो ढ़ोलो
काईं काईं लायो रे वीरा डायजिये ... जरमरियो ढ़ोलो।

ससुर-गृह पहुँचने के बाद वधू का कर्तव्य हो जाता है अपने वंश को बढ़ाना, परिवार के सुख-दुख में हिस्सा लेते हुए सबको सुखो और सन्तुष्ट रखना। कितनी मुश्किल से उसने पीहर छोड़ा। कैसे भूलें वे गलियां वह धूल, और वह सहेलियां, जिनके साथ वह खेलकर बड़ी हुई, वह कसक मिटें तो किस तरह।

रात हुई। चिरप्रतीक्षित रात, कितनी उमंगों से उसके पति ने इस रात के स्वप्न अपनी आंखों में सजोंए थे और उस स्वंय ने भी तो धड़कते हृदय से क्या-क्या नहीं सोच डाला था, और अब जब वह रात आई तो उसकी जिठानियों ने जबरदस्ती उसे कमरे में धकेल दिया। वह बाहर कैसे जाए? क्या बहाना बनाए? अचानक उसे एक उपाय सूझता है, वह पति से अनुनय करती है कि जरा-सी देर के लिए उसे बाहर खेलने जाने दो, वह उनकी जन्म-जन्म की गुलाम बन जाएगी, यदि कुछ समय के लिए उसे छोड़ दिया जाए। तब तक वह सम्भल तो जाए। धड़कते हृदय को सान्तवना तो दे ले। अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल ढ़ालने का अवसर तो मिलें, यह सब सोच वह अनुनय करती है -


रमणा जावा दो, बना सा खेलवा जावा दो
म्हारी नणदल जोवे बाट, राजा रमवा जावा दो
फूल गजरो ................... ढ़ोला लाल गजरो
म्हारे लावे सैर री मांलण-बाल गजरो
रकवा जावा दो ...... भंवर सा खेलवा जावो दो..

पर पति भी तो चतुर था, उसने उसकी सलज्जता देख ली थी। वह इस लाज के बन्धन को समाप्त करना चाहता था, जससे दो चिर प्यासे हृदय परस्पर मिलें और अपनी प्यास बुझाएँ। वह वैसा ही चातुर्यपूर्ण उत्तर देता है ""हाँ हाँ खेलों, जरुर खेलो, आओ इधर खेलें। सारी रात भी खेलें तो भी कौन मना करता है।''


रमजो सारी रात लाडी सा खेलजो सार रात
इस ढ़ोलियां सामी खेल, बनीसा समसां सारी रात।

हक्की-बक्की हो गई वह, उसे स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि उसके ही शस्र से उसका वार काट दिया जाएगा। वह अपने चतुर पति का संकेत समझ गई, परन्तु #ेक बार फिर कोई नया बहाना सोच रही थी कि चतुर पुरुष ने स्पष्ट करते हुए अनुनयपूर्वक समझा दिया -


रात हुई अधरात बनीसा, रात हुई अधरात
म्हारे साथे खेलो आज, लाडी सा ... सात हुई अधरात।

वह बड़े पेशोपेश में पड़ गई। उसके तो सारे वार खाली जा रहै हैं। हीठला माने भी तो तब न? उसने स्रियोचित अन्तिम शस्र सम्भाला, जो कि अमोध था, अचूक था। सलज्ज मानवती-सी एक ओर मानकर बैठ गई चुपचाप .. निस्पन्द...।

चतुर पुरुष समझ गया, एक क्षण बीता, दो क्षण बीते, आखिर वह उटा व बोला -


राजी राजी बोल बनी तो चुड़लो पेरादूं
बेराजी बोले तो म्हारी लाल चिटियो, म्हारी फूल चिटियो
नवी नारंगी रो खेल बतादूं रसिया .... मीठी खरबूजो
राजी राजी बोल बनी तो तीमणियौ पैराधूं
बैराजी बोले तो म्हारी लाल चिटियों ... म्हारी फूल चिटियों
नई नारंगी रो खेल बता दू रसिया .. मीमो खरबूजों।

इस प्रतीक प्रधान लोकगीत में शत-शत भाव गुम्फित है, जिसका विश्लेषण करने पर ही अर्थानन्द आ सकता है, और जब हम उन भोलेभाले जन कवियों के ऐसे प्रतीक प्रधान गीत देखते हैं तो, एक बारगी ही हम उनकी कल्पना और सूझ पर बिजड़ित से हो आते हैं। उनकी कला से आगे हमारा मस्तिष्क झुक जाता है। नि:संदेह यह एक ही गीत किसी भी श्रेष्ठ साहित्य के सम्मुख बेहिचक रखा जा सकता है, यही इस गीत की विशालता व महानता है।

मगर वह नाराज थी कब? यह मान-मनौबल तो जिन्दगी की प्यास थी, यही तो क्षण सदा के लिए उनके हृदय-पटल पर अंकित हो जाएगें। वह उठी उसने समझ लिया, उसका पति सुन्दर व स्वस्थ्य ही नहीं है, वाक् चतुर भी है, परिस्थिति को भांपने की क्षमता रखता है। उसने नया पासा फेंका -


शहर बाजार में जाइजो हो बना जी हो राज
पान मंगाय वो रंगतदार बनजी बांगा माहे
पांन खाय बनी सांभी सभी, बना हजी हो राजे
बनो खीचे बनी से हाथ .. हो बांगा माहे
हाव्यलड़ों मत खीचों बना जी हो राजे
रुपया लेस्सूँ सात हजार .... हो बांगा माहे
ऊधार फुझाब मैं नहीं करां हो राज
रुपया गिगलां सात हजार ... हो बांगा माहे
शहर बाजरां मती जाइजो हो राज
म्हांने परदेसी रो कांई रे विसवास .. हो बांगा माहे....

इन गीतों की व्यजंना पर जब हम ध्यान देते हैं तो ज्ञात होता है कि राजस्थानी जननायकों एवं गायिकाओं ने परिवार व रीति-रिवाजों के छोटे से छोटे क्षण व छोटी से छोटी चेष्टा को भी अपनी आंखों से ओझल नही होने दिया है। इन गीतों में एक ऐसी चेतना और तादात्मय है, जो प्रत्येक के हृदय को झकझोरकर उसे एक सूत्र में बांधने का सफल व सहज प्रयास करता है। इन गीतों में हमारी आत्मा है, हमारा संगीत है। जनमानस की चेतना है और उसके हृदय का प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म रुपन्दन है। प्रत्येक छोटी से छोटी घटना प्रत्यक्षीकरण है। ये गीत हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं और इन गीतों के माध्यम से हमारी सभ्यता, संस्कृति व भोले-भाले निश्छल, निष्कुपट ग्रामीण हृदयों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दन अक्षुण्ण है, और रहेंगे।

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...