Saturday, September 29, 2012

महाराष्ट्र की राजनीति में एकबार फिर दिखेगी चाचा-भतीजे के अहम् की जंग???




                 

नई दिल्ली : आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक खबर ये है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायणन ने उप मुख्यमंत्री अजीत पवार का इस्तीफा स्वीकार कर लिया है। सिंचाई घोटाले पर आलोचना का शिकार बने अजीत मंगलवार को इस्तीफा दिया था| मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की अनुशंसा के बाद राज्यपाल ने शनिवार को अजीत का इस्तीफा स्वीकार किया| जिसके बाद राज्य में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन सरकार को लेकर चल रहा संकट समाप्त हो गया| 

पिछले कई दिनों से इस्तीफे का नाटक चल रहा था जिसका अंत हो गया है राकांपा प्रमुख व केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने मुख्यमंत्री से कहा कि वह अजीत का इस्तीफा स्वीकार करें। इसके साथ ही पवार ने इस्तीफा देने वाले अपनी पार्टी के 19 अन्य मंत्रियों से कहा कि वे कामकाज संभालें।

ऊपरी तौर पर देखे तो ये किसी भी पार्टी का अन्दुरुनी मामला हो सकता है लेकिन यदि इसकी पड़ताल करें तो कहानी कुछ और ही सामने आती है और ये कहानी है पवार कुनवे में शुरू हुए पावर गेम की| हमारे पार्टी सूत्रों के मुताबिक पार्टी अध्यक्ष और अजीत के चाचा शरद अपनी राजनैतिक विरासत अपनी पुत्री सुप्रिया सुले के हाथों में देने चाहते हैं जबकि इसके असली हकदार अजीत है क्योंकि आज पार्टी इतनी मजबूती से खड़ी है तो उसमें अजीत की भी जी तोड़ मेहनत शामिल है| प्रदेश में अजीत की छवि एक जमीनी नेता वाली है जबकि सुप्रिया एक बारामती से संसद सदस्य और पार्टी अध्यक्ष की पुत्री से अधिक कुछ नहीं हैं| 

वहीँ पिछले कुछ वर्षों में पार्टी के अन्दर अजीत का कद काफी बढ़ गया, जिसे शरद कम करना चाहते थे और ये मौका इसके लिए सबसे मुफीद था| अजीत के समर्थन में प्रदेश भर में प्रदर्शन हो रहे थे| जिसके बाद उसे दबाने की कमान शरद को अपने हाथों में लेनी पड़ी| अजीत गठबंधन सरकार और पार्टी दोनों में मजबूत हो रहे थे, एक दिन ऐसा भी आ सकता था कि अजीत पवार पूरी पार्टी हाईजैक करने की पोजीशन में आ जाते। ऐसा ना हो, इसीलिए ही एनसीपी की महिला विंग बनाई गई और सुप्रिया सुले उसमें सक्रिय हुई।

ये खबर आना कि इस्तीफा देने के कई दिन बाद जब शरद पवार ने शुक्रवार को मुंबई में एनसीपी की बैठक ली, तब शरद पवार और अजीत पवार मिले थे, ये तथ्य चौंकाने वाला है। उस बैठक में सुप्रिया सुले भी मौजूद थी, जो ना तो महाराष्ट्र में एनसीपी विधायक है ना ही राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप करती हैं। 

इस पूरे घटनाक्रम में जो बातें निकल कर सामने आयी उसने शिवसेना के उस विवाद की याद ताज़ा कर दी जब सेना सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे ने ऊर्जावान भतीजे राज के बदले बेटे उद्धव को सेना की कमान सौंप दी जबकि सेना में राज की अच्छी पकड़ थी नेता से कार्यकर्ता तक उनसे जुड़े हुए थे| सभी को यही लग रहा था की राज ही बाला साहेब ठाकरे के उत्तराधिकारी होंगे लेकिन उन्होंने अपने बेटे की राजनैतिक जमीं मजबूत करने के लिए उसे पार्टी सौंप दी| उसका नतीजा आज सबके समाने है राज की नवगठित पार्टी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने हर कदम पर शिवसेना के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं| जहाँ एक ओर राज देश भर में छाए रहते हैं वहीँ उद्धव कभी कभार ही चर्चा में होते हैं|

अब बात करते हैं राष्ट्रवादी कांग्रेस की यहाँ भी हालत इससे जुदा नहीं है कांग्रेस से अलग होकर शरदचंद्र गोविंदराव पवार (शरद पवार) ने वर्ष 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की स्थापना की| इन चुनावों में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, परिणामस्वरूप शरद पवार को महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करना पड़ा| जिसके बाद विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री और छगन भुजबल को उपमुख्यमंत्री बनाया गया| वर्ष 2004 में लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज करने के बाद पवार ने मनमोहन सरकार में कृषि मंत्री का पद संभाला| 29 नवंबर, 2005 को शरद पवार भारतीय क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष भी नियुक्त हुए| वर्ष 2009 में शरद पवार मनमोहन सरकार के अंतर्गत कृषि और उपभोक्ता मामलों के साथ-साथ खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण के केंद्रीय मंत्री बनाए गए| वर्ष 2010 में इंग्लैंड के डेविड मॉर्गन के बाद शरद पवार अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के भी अध्यक्ष चयनित हुए| शरद की बेटी सुप्रिया भी राजनीति में सक्रिय है और पार्टी की संसद सदस्य है| शरद के छोटे भाई प्रताप का बेटा है अजीत जिसने चाचा की ऊँगली पकड़ राजनीति का ककहरा सीखा और पार्टी को यहाँ तक पहचाने में अहम् भूमिका अदा की| 

आज अजीत पार्टी के अन्दर काफी बड़ी ताकत माने जाते है और शरद बेटी सुप्रिया को जल्द से जल्द अपने स्थान पर देखना चाहते हैं इसी के मद्देनज़र पिछले हफ्ते सुप्रिया को यशवंत राव चव्हाण प्रतिष्ठान का अध्यक्ष बनाया गया अभी तक शरद ही इस प्रतिष्ठान के अध्यक्ष थे। सुप्रिया भी आजकल महाराष्ट्र में घूम-घूमकर युवती मेलवा के बैनर तले महिला कार्यकार्ताओं को जोड़ने में लगी हैं। आलाकमान से कार्यकर्ताओं को आदेशित किया गया है कि वे सुप्रिया के कार्यक्रम को कामयाब बनाने की हर संभव कोशिश करें। इस पूरे प्रकरण पर जब सुप्रिया से बात की गयी तो उन्होंने बड़े नाटकीय अंदाज़ में कहा कि पार्टी में कहीं कोई मतभेद नहीं है| 

अजीत पवार का प्रदेश में कद 

अजीत अपने कार्यकाल के दौरान राज्य की कांग्रेस एनसीपी गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर माने जाने लगे थे। जब प्रदेश में उप मुख्यमंत्री पद की बात सामने आयी तब उनके समर्थक विधायकों ने शरद घेरा था और इस बात के लिए दबाव बनाया था कि अजीत उप-मुख्यमंत्री बनाये जाये। अजीत समर्थकों के अनुसार अजीत तभी शरद की आखों में खटक गए होंगे। शरद को ये बात अच्छे से पता थी कि अजीत महाराष्ट्र में पार्टी के सबसे मजबूत नेता बन गए हैं और अगले चुनाव के बाद अजीत मुख्यमंत्री बनने की जोर-अजमाइश भी करेंगे। स्थानीय निकायों में भी अजीत समर्थकों का कब्जा बढ़ता गया। इसीलिए शरद ने अजीत को ठिकाने लगाने की कोशिश आरंभ कर दी और जल्द ही मौका भी मिल गया इस सिचाई घोटाले के रूप में| 

अजीत के कमजोर होने से सबसे बड़ा फायदा सुप्रिया को ही होने वाला है क्योंकि जमीनी स्तर पर हजारों कार्यकर्ता अजीत से जुड़े हैं जिनको धीरे से किनारे लगा दिया जायेगा। इतना ही नहीं, अजीत के उप मुख्यमंत्री न रहे पर उनके समर्थकों का हौसला भी टूटेगा। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये होगा कि पार्टी को नए कार्यकर्ता और मतदाता मिलने मुश्किल होंगे, क्योंकि अब लोगों के सामने ये लालच नहीं रहेगा कि यदि अजीत अगले चुनाव के बाद सीएम बन गए तो अपनी भी चांदी हो जाएगी। ये राजनीति का एक कड़वा सच है। जब पार्टी या नेता के कल कुछ बनने के चांस नहीं होते, तो अच्छे से अच्छे और सगे से सगे भी किनारा कर लेते हैं।
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Thursday, September 27, 2012

इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू राजवंश में अनैतिकता को नयी ऊँचाई पर पहुचाया.



           
बौद्धिक इंदिरा को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था लेकिन वहाँ
से जल्दी ही पढाई में खराब प्रदर्शन के कारण बाहर निकाल दी गयी. उसके बाद उनको शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था, लेकिन गुरु देव
रवीन्द्रनाथ टैगोर उसके दुराचरण के लिए बाहर कर दिया .

शान्तिनिकेतन से बहार निकाले जाने के बाद इंदिरा अकेला हो गयी. राजनीतिज्ञ के रूप में पिता राजनीति के साथ व्यस्त था और मां तपेदिक के स्विट्जरलैंड में मर रही थी. उनके इस अकेलेपन का फायदा फ़िरोज़ खान नाम के व्यापारी ने उठाया. फ़िरोज़ खान मोतीलाल नेहरु के घर पे मेहेंगी विदेशी शराब की आपूर्ति किया करता था. फ़िरोज़ खान और इंदिरा के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए. महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल डा. श्रीप्रकाश नेहरू ने चेतावनी दी, कि इंदिरा फिरोज खान के साथ अवैध संबंध रहा था. फिरोज खान इंग्लैंड में तो था और इंदिरा के प्रति उसकी बहुत सहानुभूति थी. जल्द ही वह अपने धर्म का त्याग कर, एक मुस्लिम महिला बनीं और लंदन के एक मस्जिद में फिरोज खान से उसकी शादी हो गयी. इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू ने नया नाम मैमुना बेगम रख लिया. उनकी मां कमला नेहरू इस शादी से काफी नाराज़ थी जिसके कारण उनकी तबियत और ज्यादा बिगड़ गयी. नेहरू भी इस धर्म रूपांतरण से खुश
नहीं थे क्युकी इससे इंदिरा के प्रधानमंत्री बन्ने की सम्भावना खतरे में आ गयी.

तो, नेहरू ने युवा फिरोज खान से कहा कि अपना उपनाम खान से गांधी कर लो. परन्तु इसका इस्लाम से हिंदू धर्म में परिवर्तन के साथ कोई लेना - देना नहीं था. यह सिर्फ एक शपथ पत्र द्वारा नाम परिवर्तन का एक मामला था. और फिरोज खान फिरोज गांधी बन गया है, हालांकि यह बिस्मिल्लाह सरमा की तरह एक असंगत नाम है. दोनों ने ही भारत की जनता को मूर्ख बनाने के लिए नाम बदला था. जब वे भारत लौटे, एक नकली वैदिक विवाह जनता के उपभोग के लिए स्थापित किया गया था. इस प्रकार, इंदिरा और उसके वंश को काल्पनिक नाम गांधी मिला. नेहरू और गांधी दोनों फैंसी नाम हैं. जैसे एक गिरगिट अपना रंग बदलती है, वैसे ही इन लोगो ने अपनी असली पहचान छुपाने के लिए नाम बदले.

इंदिरा गांधी के दो बेटे राजीव गांधी और संजय गांधी थे . संजय का मूल नाम
संजीव था क्युकी राजीव और संजीव सुनने में अच्छे लगते थे. संजीव ब्रिटेन में
कार चोरी करने के आरोप में गिरफ्तार हुआ और उसका पासपोर्ट जब्त किया गया. इंदिरा गांधी की दिशा निर्देश में, भारतीय राजदूत कृष्णा मेनन अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर संजीव से उसका नाम संजय करवा दिया और एक नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवा दिया.

यह एक ज्ञात तथ्य यह है कि राजीव के जन्म के बाद, इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी अलग - अलग रहते थे, लेकिन उन्होंने छवि ख़राब होने के कारण तलाक नहीं लिया. के.एन. राव की पुस्तक "नेहरू राजवंश" (10:8186092005 ISBN) में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है संजय गांधी फ़िरोज़ गांधी का पुत्र नहीं था, जिसकी पुष्टि के लिए उस पुस्तक में अनेक तथ्यों को सामने रखा गया है. उसमे यह साफ़ तौर पे लिखा हुआ है की संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस नामक सज्जन का बेटा था.

दिलचस्प बात यह है की एक सिख लड़की मेनका का विवाह भी संजय गाँधी के साथ मोहम्मद यूनुस के घर में ही हुआ था. यूनुस शादी से नाखुश था क्युकी वह अपनी बहू के रूप में अपनी पसंद की एक मुस्लिम लड़की के साथ उसकी शादी करना चाहता था. मोहम्मद यूनुस ही वह व्यक्ति था जो संजय गाँधी की विमान दुर्घटना के बाद सबसे ज्यादा रोया था. 'यूनुस की पुस्तक "व्यक्ति जुनून और राजनीति" (persons passions and politics )(ISBN-10: 0706910176) में साफ़ लिखा हुआ है की संजय गाँधी के जन्म के बाद उनका खतना पूरे मुस्लिम रीति रिवाज़ के साथ किया गया था.

यह एक तथ्य है कि संजय गांधी लगातार अपनी माँ इंदिरा को ब्लाच्क्मैल करते थे की वह उनको असली पिता के बारे में बताये. संजय का अपनी माँ पर एक गहरा भावनात्मक नियंत्रण था जिसका वह अक्सर दुरोपयोग करते थे. इंदिरा गांधी संजय के कुकर्मों की अनदेखी करती थी और संजय परोक्ष रूप से सरकार नियंत्रित करता था.

जब संजय गांधी की मृत्यु की खबर इंदिरा गांधी के पास पहुची तो इंदिरा का पहला सवाल था "संजय की चाभी और घडी कहाँ है ??". नेहरू - गांधी वंश के बारे में कुछ गहरे रहस्य उन चीजों में छुपे थे. विमान दुर्घटना का होना भी आज तक एक रहस्य ही है. यह एक नया विमान था जो गोता मारकर जमीन पर गिरा और उसमे तब तक कोई विस्फोट या आग नहीं थी जब तक वह जमीन पर नहीं गिरा. यह तब होता है जब विमान में ईंधन ख़त्म हो जाता है. लेकिन उड़ान रजिस्टर से पता चलता है कि ईंधन टैंक उड़ान से पहले फुल किया गया था. इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय के अनुचित प्रभाव का उपयोग कर इस दुर्घटना की जांच होने से रोक ली जो अपने आप में संदेहास्पद है.

कैथरीन फ्रैंक की पुस्तक "the life of Indira Nehru Gandhi (ISBN:
9780007259304) में इंदिरा गांधी के अन्य प्रेम संबंधों के कुछ पर प्रकाश डाला
है. यह लिखा है कि इंदिरा का पहला प्यार शान्तिनिकेतन में जर्मन शिक्षक के साथ था. बाद में वह एमओ मथाई, (पिता के सचिव) धीरेंद्र ब्रह्मचारी (उनके योग शिक्षक) के साथ और दिनेश सिंह (विदेश मंत्री) के साथ भी अपने प्रेम संबंधो के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने इंदिरा गांधी के मुगलों के लिए संबंध के बारे में एक दिलचस्प रहस्योद्घाटन किया अपनी पुस्तक "profiles and letters " (ISBN:8129102358) में किया. यह कहा गया है कि 1968 में इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री के रूप में अफगानिस्तान की सरकारी यात्रा पर गयी थी . नटवर सिंह एक आईएफएस अधिकारी के रूप में इस दौरे पे गए थे. दिन भर के कार्यक्रमों के होने के बाद इंदिरा गांधी को शाम में सैर के लिए बाहर जाना था . कार में एक लंबी दूरी जाने के बाद, इंदिरा गांधी बाबर की कब्रगाह के दर्शन करना चाहती थी, हालांकि यह इस यात्रा कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया. अफगान सुरक्षा अधिकारियों ने उनकी इस इच्छा पर आपत्ति जताई पर इंदिरा अपनी जिद पर अड़ी रही . अंत में वह उस कब्रगाह पर गयी . यह एक सुनसान जगह थी. वह बाबर की कब्र पर सर झुका कर आँखें बंद करके कड़ी रही और नटवर सिंह उसके पीछे खड़े थे . जब इंदिरा ने उसकी प्रार्थना समाप्त कर ली तब वह मुड़कर नटवर से बोली "आज मैंने अपने इतिहास को ताज़ा कर लिया (Today we have had our brush with history ". यहाँ आपको यह बता दे की बाबर मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक था, और नेहरु खानदान इसी मुग़ल साम्राज्य से उत्पन्न हुआ. इतने सालो से भारतीय जनता इसी धोखे में है की नेहरु एक कश्मीरी पंडित था....जो की सरासर गलत तथ्य है.
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यह गिनती करना मुश्किल है आज कितने उच्च शिक्षा के संस्थानों कैसे राजीव गांधी के नाम पर चल रहे हैं लेकिन सच यह है की खुद राजीव गांधी कम क्षमता का एक व्यक्ति था. 1962 से 1965 तक, वह ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक यांत्रिक अभियांत्रिकी पाठ्यक्रम के लिए नामांकित किया गया था. लेकिन, वह कैम्ब्रिज की डिग्री के बिना छोड़ दिया, क्योंकि वह परीक्षा पारित नहीं कर सका. अगले साल 1966 में, वह इंपीरियल कॉलेज, लंदन, गया लेकिन यहाँ भी डिग्री के बिना ही उनको जाना पड़ा.

ऊपर में के.एन. राव ने कहा कि पुस्तक का आरोप है कि राजीव गांधी एक कैथोलिक बन गए सानिया माइनो शादी करने के लिए. राजीव रॉबर्टो बन गया. उनके बेटे का नाम Raul और बेटी का नाम Bianca है. काफी चतुराई से एक ही नाम राहुल और प्रियंका के रूप में भारत के लोगों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

व्यक्तिगत आचरण में राजीव हमेशा ही एक मुगल राजा की तरह था. वह 15 अगस्त 1988 को लाल किले की प्राचीर से गरज कर बोला था : "हमारा प्रयास भारत को 250-300 साल पहले वाली ऊंचाई तक ले जाने के लिए होना चाहिए". यह तो औरंगजेब और उसके जेज़िया गुरु का शाशन काल था जो की नंबर एक का मंदिर विध्वंसक था. "

भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद लन्दन में उनका
पत्रकार सम्मेलन बहुत जानकारीपूर्ण था. इस पत्रकार सम्मेलन में राजीव दावा है कि वह एक पारसी है और हिन्दू नहीं है . फिरोज खान के पिता और राजीव गांधी के पैतृक दादा गुजरात के जूनागढ़ क्षेत्र से एक मुस्लिम सज्जन था. नवाब खान के नाम से यह मुस्लिम पंसारीने एक पारसी महिला को मुस्लिम बनाकर उससे शादी की थी. इस स्रोत से पता चलता है की वोह अपने आप को पारसी क्यों कहते थे. ध्यान रहे कि उनका कोई पारसी पूर्वज नहीं था . उनकी दादी ने पारसी धर्म को त्याग दिया और नवाब खान शादी के बाद मुस्लिम बन गयी थी . हैरानी की बात है, पारसी राजीव गांधी का वैदिक संस्कार के अनुसार भारतीय जनता का पूरा ध्यान में रखते हुए अंतिम संस्कार किया गया था.

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डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी लिखते हैं कि सोनिया गांधी के नाम एंटोनिया माइनो था.
उसके पिता एक मेसन था. वह कुख्यात इटली के फासिस्ट शासन के एक कार्यकर्ता था और वह रूस में पांच साल की कैद की सेवा की. वास्तव में सोनिया गांधी ने कभी पांचवी कक्षा के ऊपर अध्ययन नहीं किया है. वह एक अंग्रेजी शिक्षण कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय परिसर में लेनोक्स स्कूल नाम की दुकान से कुछ अंग्रेजी सीखी है. इस तथ्य से वह प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन करने का दावा करती थी परन्तु जब डॉक्टर स्वामी ने उनके इस झूठ पर प्रश्न किये, तो सोनिया ने चुप्पी साध ली और बाद में कह दिया की उनके द्वारा cambridge university में डिग्री की बात एक "प्रिंटिंग मिस्टेक" है. उसके बाद सोनिया ने कभी cambridge university में पढने की बात नहीं स्वीकारी. सत्य यह है की कुछ अंग्रेजी सीखने के बाद, वह कैम्ब्रिज शहर में एक रेस्तरां में एक वेट्रेस थी .

सोनिया गांधी ब्रिटेन में जिस रेस्तरां में एक वेट्रेस थी वहां माधवराव
सिंधिया अक्सर आते थे क्युकी वह उस समय cambridge में शिक्षा ले रहे थे.
माधवराव सिंधिया से सोनिया के गर्म रिश्ते थे जो उसकी शादी के बाद भी जारी रहे. 1982 की एक रात 2 बजे आईआईटी दिल्ली मुख्य गेट के पास एक दुर्घटना हुई थी, जिसमे पुलीस ने श्री सिंधिया के साथ सोनिया को नशे की हालत में कार से बाहर निकाला था.

जब इंदिरा गांधी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब प्रधानमंत्री के सुरक्षा
कर्मी नई दिल्ली और चेन्नई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों में प्राचीन मंदिर की
मूर्तियां, और अन्य प्राचीन वस्तुओं को भारतीय खजाने के बक्सों में इटली भेजने जाते थे. मुख्यमंत्री और बाद में संस्कृति प्रभारी मंत्री के रूप में अर्जुन
सिंह इस लूट का आयोजन करते थे. सीमा से अनियंत्रित, वे इटली में पहुंचा दिए जाते थे जहाँ उन्हें Etnica और Ganpati नाम के दो शो रूम्स में बेचा जाता था. ये दोनों शो रूम्स सोनिया गांधी की बहन Alessandra माइनो विंची के नाम पर हैं.

इंदिरा गांधी की मृत्यु उसके दिल या दिमाग में गोलियों के कारण नहीं हुई बल्कि वह खून की कमी के कारण मरी थी. इंदिरा गाँधी को गोली लगने के बाद जब उनका काफी खून बह चूका था उस समय सोनिया ने अजीब जोर देकर कहा है कि खून बह रहा इंदिरा गांधी को डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में ले जाया जाना चाहिए ना की एम्स में जो एक आपात प्रोटोकॉल के लिए और ठीक इस तरह की घटनाओं के इलाज के लिए उपयुक्त है. इस प्रकार 24 बहुमूल्य मिनट बर्बाद कर दिए गए . यह संदिग्ध है कि यह सोनिया गांधी की अपरिपक्वता या तेजी से सत्ता में उसके पति को लाने के लिए एक चाल थी.

राजेश पायलट और माधव राव सिंधिया के प्रधानमंत्री के पद के लिए मजबूत दावेदार थे और वे सोनिया गांधी के सत्ता के लिए अपने रास्ते में पत्थर थे. उन दोनों के रहस्यमय दुर्घटनाओं में मृत्यु हो गई.

इस बात के प्रचुर तथ्य मौजूद हैं की मायिनो परिवार ने लिट्टे के साथ अनुबंध
किया था जिससे उनकी राजीव हत्याकांड में भूमिका संदेहास्पद बनती है . आजकल, सोनिया गांधी काफी एमडीएमके, पीएमके और द्रमुक जैसे जो राजीव गांधी के हत्यारों की स्तुति के साथ राजनीतिक गठबंधन में अडिग है. कोई भारतीय विधवा कभी अपने पति के हत्यारों के साथ ऐसा नहीं कर सकती. ऐसी परिस्थितियों में कई हैं, और एक शक बढ़ा. राजीव की हत्या में सोनिया की भागीदारी में एक जांच आवश्यक है. (ISBN 81-220-0591-8) - तुम डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी पुस्तक "आशातीत प्रश्न और अनुत्तरित प्रश्न राजीव गांधी की हत्या पढ़ सकते हैं. यह इस तरह के षड्यंत्र का संकेत होता है.

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इटली के कानून के अनुसार राहुल और प्रियंका इटालियन नागरिक हैं क्युकी उन
दोनों के जन्म के समय सोनिया गाँधी एक इटालियन नागरिक थी. 1992 में, सोनिया गांधी इतालवी नागरिकता कानून के अनुच्छेद 17 के तहत इटली की उसकी नागरिकता को पुनर्जीवित किया . राहुल गांधी के इतालवी उसकी हिन्दी की तुलना में बेहतर है. राहुल गांधी एक इतालवी नागरिक तथ्य यह है कि 27 सितंबर 2001 को वह एक इतालवी पासपोर्ट पर यात्रा करने के लिए बोस्टन हवाई अड्डे, संयुक्त राज्य अमेरिका में एफबीआई द्वारा गिरफ्तार किया गया था से प्रासंगिक है. यदि भारत में एक कानून बना है कि कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर विदेशी मूल के एक व्यक्ति को नहीं लाया जा सकता तो राहुल गांधी को स्वचालित रूप से प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य हैं.

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स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद, राहुल गांधी नई दिल्ली में सेंट स्टीफंस
कॉलेज में प्रवेश मिल गया, योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि राइफल शूटिंग के खेल कोटे पर. 1989-90 में कुछ दिन दिल्ली में रहने के बाद राहुल ने 1994 में
रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा जो एक christianचैरिटी द्वारा चलाया जाने वाला सी ग्रेड
का कॉलेज है , से बी.ए. किया. बस एक बीए करने के लिए अमेरिका जाने की ज़रूरत किसी को नहीं होती. इसलिए अगले ही वर्ष, 1995 में उसे एम. फिल मिला ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज से . इस डिग्री की वास्तविकता आप इसी से समझ सकते हैं की उन्हें ये डिग्री बिना एमए किये हुवे मिल गयी. इसके पीछे Amaratya सेन की मदद का हाथ माना जाता है. आप में से कई मशहूर फिल्म 'मुन्नाभाई एमबीबीएस " देख ही चुके हैं .

2008 में राहुल गांधी ने कानपुर में चन्द्र शेखर आजाद विश्वविद्यालय के
छात्रों की रैली के लिए एक सभागार का उपयोग करने से रोका गया था. बाद में,
विश्वविद्यालय के कुलपति वी.के. सूरी, को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल द्वारा
अपदस्थ किया गया था. 26/11 के दौरान जब पूरे देश के बारे में कैसे मुंबई आतंक से निपटने के लिए तनाव में था, राहुल गांधी आराम से प्रातः 5 बजे तक अपने दोस्तों के साथ जश्न मना रहा था . राहुल गांधी कांग्रेस के सदस्यों के लिए तपस्या की सलाह है. वे कहते हैं, यह सभी नेताओं का कर्तव्य है तपस्या हो. दूसरी ओर वह एक पूरी तरह सुसज्जित जिम वाले एक मंत्री वाले बंगला में रहते हैं इसके अलावा वह दिल्ली के दो सबसे मेहेंगे ५ स्टार जिम के नियमित सदस्य भी हैं, राहुल गांधी की चेन्नई यात्रा 2009 में तपस्या के लिए अभियान के लिए पार्टी के 1 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किये . इस तरह की विसंगतियों से पता चलता है कि राहुल गांधी द्वारा की गई पहलों का कितना महत्व है.
2007 उत्तर प्रदेश में चुनाव अभियान के दौरान राहुल गांधी ने कहा कि "अगर
नेहरू - गांधी परिवार का कोई भी सदस्य उस समय सक्रिय होता तो बाबरी मस्जिद कभी न गिरती."
इस कथन से उनका अपने पूर्वजों के लिए एक वफादारी के रूप में अपने मुसलमान संबद्धता का पता चलता है.
31 दिसंबर, 2004 को जॉन एम., itty, केरल के अलाप्पुझा जिले में एक सेवानिवृत्त कॉलेज के प्रोफेसर, दलील देते है कि केरल में एक रिसॉर्ट में तीन दिनों के लिए एक साथ रहने के लिए राहुल गांधी और उसकी प्रेमिका Juvenitta उर्फ वेरोनिका के खिलाफ कार्रवाई लिया जाना चाहिए. यह अनैतिक तस्करी अधिनियम के तहत एक आपराधिक अपमान के रूप में वे शादी नहीं कर रहे. वैसे भी, एक और विदेशी बहू के सहिष्णु भारतीयों पर राज कर रही है.

स्विस पत्रिका Schweizer है Illustrierte 11 वीं नवम्बर 1991 अंक से पता चला है कि राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी द्वारा नियंत्रित अमेरिकी 2 अरब डॉलर के लायक खातों के लाभार्थी था. 2006 में स्विस बैंकिंग एसोसिएशन से एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारतीय नागरिकों की संयुक्त जमा के रूप में अभी तक किसी भी अन्य देश, 1.4 खरब अमरीकी डॉलर का एक कुल, एक भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से अधिक का आंकड़ा अधिक से अधिक कर रहे हैं. इस राजवंश ने भारत के आधे से अधिक नियम. केंद्र की उपेक्षा कर, बाहर के 28 राज्यों और 7 संघ शासित प्रदेशों की, उनमें से आधे से अधिक समय के किसी भी बिंदु पर कांग्रेस सरकार है. तक राजीव गांधी ने भारत में मुगल शासन के साथ सोनिया गांधी, रोम भारत पर शासन करना शुरू कर दिया था.

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इस लेख लिखने के पीछे उद्देश्य भारतीय नागरिको को उनके प्रिय नेताओ के बारे में जागरूक करना है और यह बताना है की किस तरह एक परिवार सदियों से इस देश को खोकला करता आ रहा है और हम भारतीय चुपचाप उनकी गुलामी करते जा रहे हैं. सबूत के समर्थन की कमी की वजह से इस लेख में कई अन्य चौंकाने वाला तथ्य नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं.
इन सभी तथ्यों की पुष्टि के लिए आप डॉक्टर सुभ्रमनियम स्वामी की पुस्तकों या उनकी वेबसाइट देख सकते हैं.

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Wednesday, September 26, 2012


सिंह इज करप्शन किंग

2 hours ago
Click to Download[प्रेम शुक्ला] प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने बीते शुक्रवार को राष्ट्र के नाम दिए गए संदेश में देशवासियों पर लानतों की बरसात की है। प्रधानमंत्री ने खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के अपने फैसले को न्यायोचित करार देने के लिए उल्टे जनता से सवाल पूछा कि ‘क्या रुपए पेड़ पर उगते हैं?’ दुर्भाग्यवश इस देश की मुख्यधारा का मीडिया डॉ। मनमोहन सिंह को बेहद शालीन, ईमानदार, कर्तव्यपरायण और लोकतांत्रिक व्यक्ति करार देता है।

अर्थतंत्र-अनर्थतंत्ररू सच्चाई मीडिया जनित इस धारणा के ठीक विपरीत है। मनमोहन सिंह के पूरे कैरियर का बारीकी से विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि भारतीय अर्थतंत्र अनर्थतंत्र में तब्दील करने वाला व्यक्ति डॉ। मनमोहन सिंह है। 2004 से 2012 तक के उनके प्रधानमंत्रित्व काल का आकलन किया जाए तो उन्हेांने इस कालावधि में हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के महत्वपूर्ण स्तंभों की जितनी अवमानना की है उसके बाद उनके खिलाफ ‘महाभियोग’ से कम कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। आश्चर्य है कि मनमोहन सिंह के पापों पर उन्हें दंडित करने की मांग करना तो दूर उनके खिलाफ कुछ खुलकर कहने में विपक्ष को भी संकोच हो रहा है। पहले हम मनमोहन सिंह के इस बयान की पड़ताल कर लेते हैं कि ‘अर्थ व्यवस्था सुधारने के लिए देश को कठोर फैसले करने पड़ेंगे।’

जिम्मेदार कौनरू सवाल पैदा होता है कि इस देश की आर्थिक बदहाली के लिए क्या आम जनता जिम्मेदार है, या राजनीतिक विपक्षी दल जिम्मेदार हैं? सच्चाई तो यह है कि देश की आर्थिक बदहाली के लिए डॉ। मनमोहन सिंह से ज्यादा जिम्मेदार कोई दूसरा व्यक्ति इस देश में हो ही नहीं सकता। मनमोहन सिंह बीते 5 दशकों से इस देश की आर्थिक नीतियों को तय करने वाले नियामकमंडल के कर्ता-धर्ता हैं। मनमोहन सिंह पर टिप्पणी करने वाले अधिकांश पत्रकार मनमोहन सिंह का कैरियर 1991 के बाद ही देखते हैं, जिस पर उन्हें आर्थिक उदारीकरण का श्रेय देकर भारत की आधुनिकता अर्थव्यवस्था का तारणहार करार देकर उनकी प्रशंसा करते है।

‘फिक्सर’रू मनमोहन सिंह का असली चेहरा जानना हो तो पहले 1970 के दशक के उनके इतिहास पर नजर डालनी पड़ेगी। 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘फिक्सर’ के रूप में कुख्यात हुआ करते थे ललित नारायण मिश्र। ललित नारायण मिश्र को इंदिरा गांधी ने विदेश व्यापार विभाग का प्रभार सौंप रखा था। उन दिनों विपक्षियों का आरोप हुआ करता था कि ललित नारायण मिश्र कांग्रेस के सत्ताधारी परिवार का धन ठिकाने लगाया करते थे। 1966 में मनमोहन सिंह ने पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेन्स ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट ;न्छब्ज्।क्द्ध में फाइनेंसिंग एंड ट्रेड सेक्शन के मुखिया का पदभार संभाला। भारत से चिली की राजधानी सैटियागो जाते समय ललित नारायण मिश्र पहली बार डॉ। मनमोहन सिंह से मिले। दोनों में याराना हो गया। ललित नारायण मिश्र ने कुछ दिन बाद ही मनमोहन सिंह को विदेश व्यापार के मामले में भारत सरकार के सलाहकार पद पर नियुक्त कर दिया। कालेधन के तत्कालीन फिक्सर को मनमोहन सिंह इतने प्रिय क्यों लगे? सालभर के भीतर मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त कर दिया। जिस पद पर हाल तक कौशिक बसु थे और अब रघुराम राजन विश्व बैंक की सिफारिश से आए हैं उस महत्वपूर्ण पद पर मनमोहन सिंह 1972 से 1976 तक रहे। 1976 में उन्हें रिजर्व बैंक का निदेशक बना दिया गया, इसी दौरान (1976-1980) तक उन्हें इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया (आईडीबीआई) का भी निदेशक पद प्राप्त था।

हाशिए पर मनमोहनरू 1977 में जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का पतन हो गया। तब महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकांश अफसरों को हाशिए पर फेंक दिया गया। पर मनमोहन सिंह की छुट्टी किए जाने की बजाय उनका प्रमोशन हो गया। 1977 से 1980 तक जनता पार्टी की सरकार के शासनकाल में भी वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलात विभाग के वे सचिव पद पर रहे। 1980 में जब जनता पार्टी की सरकार का पतन हुआ तब दो वर्षों के लिए वे ठाली बैठे रहे। संभव है कि संजय गांधी ने उनकी चालबाजी को पहचान लिया हो और जनता पार्टी सरकार से चिपकने का उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा हो। संजय गांधी के आकस्मिक निधन के बाद मनमोहन सिंह की सरकारी महकमे में पुनर्वापसी हुई। तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बना लाए। 1982 से 1985 तक वे इस पद पर रहे। 1985 में प्रणव मुखर्जी सत्ता से बाहर फेंक दिए गए।

राजीव गांधी का अविश्वासरू राजीव गांधी को प्रणव मुखर्जी पर गहरा अविश्वास हो गया था। ऐसे में मनमोहन सिंह को मुखर्जी लॉबी का होने के चलते हाशिए पर डाल दिया चाहिए था। राजीव गांधी के कार्यकाल में भी मनमोहन सिंह महत्वपूर्ण पद झटकने में कामयाब रहे। 1985 में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया। 1987 में मनमोहन सिंह की हरकतों से नाराज होकर राजीव गांधी ने योजना आयोग को ‘जोकरों का अड्डा’ करार दिया था। तब मनमोहन सिंह योजना आयोग को छोड़कर जेनेवा स्थित ‘साउथ कमीशन’ के सेक्रेटरी जनरल बन गए। साउथ कमीशन में उनके कार्यकाल के दौरान गरीब देशों में विदेशी निवेश किस तरह से छलावा है, का खुलासा करने वाली एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट के माध्यम से मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले साउथ कमीशन ने गरीब देशों में आने वाली विदेशी पूंजी की जो पोल खोली वह आज भी प्रासंगिक है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में तैयार साउथ कमीशन की रिपोर्ट का दावा किया गया कि 1986-1989 के बीच 17 गरीब देशों में पूंजी आवागमन का जो अध्ययन किया गया उसके अनुसार इस अवधि में इन देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), विदेशी कर्ज और अनुदान के माध्यम से कुल 215 बिलियन डॉलर की पूंजी आई। जबकि इसी दौरान इन देशों से विकसित देशों में 330 बिलियन डॉलर की पूंजी चली गई।

विदेशी निवेशकों का पैरोकाररू विकसित देशों द्वारा विदेशी निवेश के नाम पर एशियाई देशों को छलने का यह जीवित प्रमाण था। 1980 के दशक की साउथ कमीशन की उस रिपोर्ट को पढ़नेवाला कोई विश्वास नहीं करेगा कि वही व्यक्ति आज भारत के खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेशकों के हवाले किए जाने का पैरोकार बन गया है। मनमोहन सिंह वापस भारत तब आए जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ हो गए। यदि जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ। सुब्रह्मण्यम स्वामी के दावों पर विश्वास किया जाए तो जनता दल सरकार के कार्यकाल में मनमोहन सिंह को जेनेवा से नई दिल्ली वापसी उन्होंने कराई थी। 1990 से 1999 तक जनता दल सरकार के शासनकाल में उन्हें आर्थिक मामलात के लिए प्रधानमंत्री का सलाहकार बनाया गया था। जब चंद्रशेखर की सरकार का पतन सुनिश्चित हो गया था तब मार्च 1991 में उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन-यूजीसी) का चेयरमैन बना दिया गया। 1991 में मई और जून के महीने में लोकसभा चुनाव हुए। उस समय कोई राजनीतिक विश्लेषक यह बता पाने की स्थिति में नहीं था कि देश में अगली सरकार किसकी बनेगी? तब राजीव गांधी जीवित थे।

विदेशी मीडिया का दावारू मई के प्रथम सप्ताह में फ्रांस की राजधानी पेरिस से प्रकाशित होने वाले एक अखबार ‘ला मोंड’ ने खबर प्रकाशित की जिसका कथ्य था कि भारत में अगली सरकार चाहे जिस पार्टी की बने उस देश का अगले वित्तमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह नामक व्यक्ति होगा। जिस व्यक्ति को 2 माह पहले प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार पद से हटाकर यूजीसी का चेयरमैन बना दिया गया हो। जो व्यक्ति किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य तक न हो। जिस व्यक्ति के मंत्री बनने की कल्पना किसी भी राजनीतिक दल के आला पदाधिकारियों तक ने न की हो। उसके बारे में इतना सटीक पूर्वानुमान फ्रांस का एक अखबार कैसे लगा लेता है? लिहाजा 21 जून 1991 को मनमोहन सिंह भारत के वित्तमंत्री बन गए और उन्होंने इंटरनेशनल मोनेटरी फंड (आईएमएफ) और वर्ल्ड बैंक द्वारा प्रस्तावित आर्थिक नीतियों को लागू कर दिया। कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में 1991 में दावा किया था कि यदि उनकी सरकार आएगी तो 100 दिनों के भीतर महंगाई कम कर दी जाएगी। 21 जून 19991 को नरसिंहराव के मंत्रिमंडल ने शपथ ली, चंद दिनों में रुपए का अवमूल्यन हो गया।

महंगाई की माररू महंगाई घटने की बजाय बढ़ गई। चूंकि मनमोहन सिंह ने बाजार के नियामकों का गठन किए बिना ही अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया था सो साल बीतते-बीतते प्रतिभूति घोटाले सामने आ गए जिसमें घपलेबाजों ने आम निवेशकों के खून पसीने की लगभग 1।8 बिलियन डॉलर की रकम पार कर दी। जब 1993 में मनमोहन सिंह की कार्यप्रणाली के खिलाफ चौतरफा हमला हुआ तो उन्होंने वित्तमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी। मनमोहन सिंह के इस पेशकश की खबर सार्वजनिक होते ही विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष का एक चेतावनी भरा बयान आ गया कि मनमोहन सिंह का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी।।वी। नरसिंहराव का इस्तीफा स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। 15 मई 1996 तक वे वित्तमंत्री के पद पर रहे। 1996 से 1998 तक का यही 2 वर्ष का समय था जब दूसरी बार मनमोहन सिंह किसी सरकारी पद पर नहीं थे। सनद रहे कि इस अवधि में मनमोहन सिंह के चेले पी। चिदंबरम वित्त मंत्री रहे। 1998 में मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी और अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेताओं को दरकिनार कर राज्य सभा में विपक्ष का नेता बना दिया। प्रधानमंत्री बनने तक वे इस पर बने रहे। 1971 से 2012 तक कुल 41 वर्षों के अपने कार्यकाल में सिर्फ 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो मनमोहन सिंह भारत के अर्थतंत्र के नियंता बने रहने की स्थिति में रहे। ऐसे में यदि यह देश आज भी आर्थिक रूप से बदहाल है तो इसका ठीकरा क्या जनता के माथे पर फोड़ा जा सकता है?

निचले पायदान पर भारतरू बीते सप्ताह दुनिया के उन 36 देशों का एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है जिन देशों में दुनिया के कुपोषित बच्चों की 90 फीसदी आबादी बसती है। उस सूची में भारत, अंगोला, कैमरून, कांगो और यमन जैसे देशों के साथ सबसे निचली पायदान पर है। बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के कुपोषित बच्चों की हालत भी भारतीय बच्चों से इस रिपोर्ट में बेहतर बताई गई है। यदि मनमोहन सिंह सचमुच आर्थिक तारणहार हैं तो हमारी भावी पीढ़ी की इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? ‘सेव दि चिल्ड्रेन’ नामक अभियान का दावा है कि देश के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और देश की महिलाओं और बच्चों को होने वाली 70 फीसदी बीमारियां कुपोषणजन्य हैं। क्या 21 वर्षों के आर्थिक उदारीकरण का यही इष्ट था? तिस पर मनमोहन सिंह की सरकार संसदीय लोकतंत्र के हर स्तंभ की अवमानना पर आमादा है। जुलाई 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने के लिए संसद में ‘वोट के बदले नोट’ का खेल रचा कर संसद की अवमानना की गई। विपक्ष के विरोध के बावजूद नवीन चावला को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पद पर नियुक्त कर निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता को सदिंग्ध किया गया। 2012 के उत्तर प्रदेश चुनावों के समय निर्वाचन आयोग से सरकार के समन्वय के लिए जवाबदेह कानून मंत्रालय के प्रभारी सलमान खुर्शीद ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस।वाई। कुरेशी की चेतावनी को दरकिनार कर चुनौती तक दे डाली कि ‘अगर उन्हें चुनाव आयोग सूली पर भी लटका दे तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि पसमांदा मुसलमानों को आराण मिले।’ निर्वाचन आयोग की अवमानना के बाद खुर्शीद को मंत्रिमंडल से निकालने के बजाय मनमोहन सिंह ने उन्हें प्रश्रय दिया। केंद्रीय सतर्कता आयोग एक संवैधानिक पद है। उच्चस्तरीय चयन समिति में मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति पर लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने पामोलीन तेल घोटाले में फंसे पी।जे। थॉमस की नियुक्ति का खुलकर विरोध किया। फिर भी उस पद पर मनमोहन सिंह ने थॉमस को तब तक नियुक्त रखा जब तक सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस की नियुक्ति को खारिज करने का आदेश नहीं दिया। सीवीसी पद की भी मनमोहन सिंह ने अवमानना कर दी। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर जब सर्वाेच्च न्यायालय ने कड़ा रूख अपनाया तब प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने न्यायपालिका की सक्रियता के खिलाफ बयान देकर उसे भी चुनौती दे दी।

सीएजी को चुनौतीरू इन दिनों मनमोहन सिंह उस महालेखा नियंत्रक (सीएजी) को चुनौती दे रहे हैं जिसे देश के संविधान निर्माता भारतरत्न डॉ। भीमराव अंबेडकर ने महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था करार दिया है। 30 मई 1949 को संविधान सभा की बैठक में डॉ। अंबेडकर ने कहा था- ‘मेरा मानना है कि सीएजी का कार्य न्यायपालिका के कार्य से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।’ डॉ। अंबेडकर के इस निष्कर्ष के बाद ही संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 के तहत सीएजी का गठन किया गया। सीएजी पर प्रधानमंत्री न केवल खुद प्रहार करते आए हैं बल्कि उनके मंत्री भी उसे आंखें दिखा रहे हैं। मनमोहन सिंह न जनहित की कसौटी पर खरे उतरते हैं, न ही संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान करने को तैयार हैं। वह केवल सत्तालोलुपता के चलते विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की चाकरी पर आमादा हैं। फिर भी उन्हें हमारा देश क्यों झेलने को मजबूर है?

(लेखक मुंबई से प्रकाशित सामना के कार्यकारी संपादक हैं)

Sunday, September 23, 2012

" चादर - चक्क " U.P.A. !!!! बेचारी- जनता !!??


जेपी वीपी तक के जनप्रयोग को बदल दिया मनमोहन ने

 पुण्यप्रसुन बाजपेयी
एक बार फिर आंकड़ों के सियासी खेल में राजनीतिक दलों की साख दांव पर है। भारतीय राजनीति के इतिहास में मौजूदा दौर अपनी तरह का नायाब वक्त है, जब एक साथ आधे दर्जन मंत्रियों के इस्तीफे के बाद सत्ता संभाले कांग्रेस खुश है। राहत में है। और उसे लगने लगा है कि पहली बार विपक्ष के वोट बैंक की उलझने उसे सत्ता से डिगा नहीं पायेंगी और आर्थिक नीतियों के विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार न सिर्फ चलती रहेगी बल्कि आर्थिक सुधार की उड़ान में तेजी भी लायेगी। जाहिर है यह मौका आर्थिक नीतियों के विश्लेषण का नहीं है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था जिन वजहों से डांवाडोल है, संयोग से उन्हें थामे हाथ को ही विकल्प देने हैं। तो भविष्य की दिशा होगी क्या इसे इस बार सामाजिक-आर्थिक तौर से ज्यादा राजनीतिक तौर पर समझना जरुरी है क्योंकि पहली बार न सिर्फ विपक्ष बंटा खड़ा है बल्कि पहली बार सत्ता की सहुलियत भोग रहे राजनीतिक दल भी बंटे हैं।
पहली बार समाजवाद या लोहियावाद से लेकर राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े राजनीतिक दल भी आपस में लड़ते हुये खोखले दिखे। यानी असंभव सी परिस्थितियों को ससंद से बाहर सड़क की राजनीति में देखा गया। वामपंथी सीताराम येचुरी से गलबहियां करते भाजपा के मुरली मनोहर जोशी। वामपंथी ए बी वर्धन खुले दिल से टीएमसी नेता ममता की तारीफ करते हुये और सीपीएम नेता प्रकाश करात न्यूक्लियर डील में समाजवादी पार्टी से शिकस्त खाने के चार बरस बाद एक बार फिर मुलायम को महत्वपूर्ण और तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने वाले नेता के तौर पर मानते हुये। जाहिर है राजनीति का यह रंग यहीं नहीं रुकता बल्कि नवीन पटनायक, बालासाहेब ठाकरे और राजठाकरे ने भी रंग बदला और नीतीश कुमार भी बिहार के विशेष पैकेज के लिये पटरी से उतरते दिखे। सभी अपने अपने प्रभावित इलाकों की दुहाई देते हुये विपक्ष की भूमिका से इतर बिसात बिछाने लगे। तो क्या इस सात रंगी राजनीति में ममता बनर्जी सरीखी नेता की सियासत कही फिट बैठती नहीं है। साफ है संसदीय राजनीति की जोड़-तोड़ पहली नजर में तो यही संकेत देती हैं कि ममता बनर्जी जिस रास्ते चल पडी वह झटके की राजनीति है। और मौजूदा वक्त हलाल की राजनीति में भरोसा करता है। जहां नीतियां, विचारधारा या सिद्धांत मायने नहीं रखते हैं। शायद इसीलिये भाजपा भी समझ नहीं पायी कि आर्थिक नीतियों का विरोध करे या फिर साख की राजनीति करते हुये खुद को चुनाव की दिशा में ले जाये, जहां आम नागरिक साफ तौर पर देख सके कि कौन नेता है कौन कार्यकर्त्ता।
भाजपा उलझी रही तो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार पर आरएसएस का हिन्दुत्व भारी पड़ गया। यानी राजनीति अगर मिल-जुल कर नही हो सकती है तो फिर विरोध कर खुद को राजनीतिक तौर पर दर्ज कराने से आगे बात जाती नहीं है। यानी परिस्थितियां ही ऐसी बनी हैं, जहां कोई एक दल अपने बूते सत्ता में आ नहीं सकता और सत्ता के लिये गठबंधन का पूरा समूह चाहिये और उसके बाद अगुवाई करने वाले चेहरे पर हर किसी की मोहर चाहिये। इस कडी में हर नेता के चेहरे को पढ़ना जरुरी है। मुलायम सिंह यादव का कद बडा इसलिये है क्योंकि उनके हक में फिलहाल उत्तर प्रदेश की सियासत है। जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा की सीटे हैं। यानी उम्मीद कर सकते हैं कि मुलायम के पास सबसे ज्यादा मौका होगा, जब उनकी सीट किसी भी क्षत्रपों की तुलना में बढ़ जायें। लेकिन क्या वामपंथी और क्या ममता बनर्जी कोई भी मुलायम के पीछे खड़े होने को तैयार होंगे। दोनों धोखा खा चुके हैं तो अपना लीडर तो मुलायम को नहीं ही बनायेंगे। दूसरा चेहरा नीतीश कुमार है। जिन्हें बिहार में चुनौती देने के लिये उनके अपने सहयोगी भाजपा हैं। हालांकि भाजपा उनके पीछे खड़ी हो सकती है लेकिन भाजपा के अलावा मुलायम और वामपंथी नीतीश कुमार के पीछे खड़े होने को क्यों तैयार होंगे। अगर हां तो फिर भाजपा के साथ खड़े होने पर जो लाभ नीतीश कुमार को मिलता है वह चुनाव के वक्त कैसे मिलेगा, अगर नीतीश गैर भाजपा खेमे में जाने को तैयार हो जायें। तीसरा चेहरा ममता बनर्जी का है। जाहिर है मनमोहन सरकार से बाहर होकर ममता ने अपना एक नया चेहरा गढ़ा है, जो बंगाल के पंचायत चुनाव से लेकर आम चुनाव तक में वामपंथियों से लेकर कांग्रेस तक को उनके सामने बौना बना रहा है। सत्ता में रहकर विरोध के स्वर को जिस तरह ममता ने हाईजैक किया उससे हर किसी झटका भी लगा और सियासी लाभ पाने की राजनीति में सेंध लगी। इसका लाभ भी ममता को जरुर मिलेगा। लेकिन क्या ममता के पीछ वामपंथी खड़े हो सकते हैं। या फिर ममता को आगे कर तीसरे मोर्चे का कोई भी चेहरा पीछे खड़ा हो सकता है।
निश्चित तौर पर यह असंभव है। और इन परिस्थितियों में वामपंथियों की अपनी हैसियत खासी कम है। यानी नयी परिस्थितियों में वामपंथी एक सहयोगी के तौर पर तो फिट है लेकिन अगुवायी करने की स्थिति में वह भी नहीं हैं। इसके अलावा अपनी अपनी राजनीति जमीन पर तीन चेहरे ऐसे हैं, जिनका कद आमचुनाव होने पर बढ़ेगा चाहे चुनाव 2014 में ही क्यों ना हो लेकिन इन तीन चेहरो को राष्ट्रीय तौर पर मान्यता देने की स्थिति में कैसे बाकि राजनीतिक दल आयेंगे यह अपने आप में सवाल है। उडीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में जगन रेड्डी। इन तीनो की हैसियत भी आने वाले वक्त में आंकड़ों के लिहाज से बढ़ेगी ही। यानी बढ़ते आंकड़ों के बावजूद तीसरे मोर्चे को लेकर कोई एक सीधी लकीर खींचने की स्थिति में कोई नहीं है। और मौजूदा दौर की यही वह परिस्थितियां हैं, जहां कांग्रेस लाभालाभ में है। क्योंकि कांग्रेस जो भी कदम उठायेगी या मनमोहन सरकार जो भी कदम उठा रहे हैं, वह पहली बार उनके अपने सहयोगियो की राजनीति के खिलाफ जा रहा है। यानी नीतियों को लेकर सहयोगियों के साथ मनमोहन सरकार का कोई बंदर बांट नहीं है बल्कि सीधा टकराव है। सीधा विरोध है मगर साथ खड़े होकर है। यानी वोट बैंक को लेकर भी पहली बार कांग्रेस ने एक अलग रास्ता बनाना शुरु किया है, जहाँ किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक या दलितो को कोई नीति बनाने की बात नहीं है बल्कि राज्यो में बंटे क्षत्रपो की राजनीति को गवर्नेंस का आईना दिखाने की सियासत है। सीधे कहें तो कांग्रेस अब यह दिखाना बताना चाहती है कि सरकार चलाना भी महत्वपूर्ण है चाहे नीतियों को लेकर विरोध हो मगर आंकड़े साथ रहे। यानी राजनीतिक हुनरमंद होने की ऐसी तस्वीर पहली बार सरकार चलाते हुये कांग्रेस दिखा रही है, जहां हर कोई एक दूसरे की सियासत से टकरा रहा है मगर कांग्रेस सबसे अलग बिना किसी के वोट बैक पर हमला बोले मजे में है।
कहा जा सकता है कि यह कमाल देश के सीईओ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ही है कि उनकी गद्दी को बचाने वाले दो बडे राजनीतिक दल सपा और बसपा के आंकड़े उत्तर प्रदेश से निकले हैं। दोनो एक दूसरे के खिलाफ है लेकिन चैक एंड बैलेंस ऐसा है कि दोनो ही कांग्रेस की नीतियों को जनविरोधी मानकर भी एक साथ खड़े होकर राजनीतिक सत्ता की सहमति बनाकर मनमोहन सरकार के साथ खड़े हैं। यानी पहली बार ऐसी राजनीति ने दस्तक दे दी है, जहां ममता बनर्जी की साख भी मायने नहीं रखती है और मनमोहन सरकार के दौर के घोटाले भी। यहां समाजवादी सिद्धांत भी बेमानी और हिन्दुत्व राग भी बेमतलब का है। यानी जेपी से वीपी तक के राजनीतिक जनप्रयोग से मजबूत दिखने वाली संसदीय राजनीति की जड़ों को ही मनमोहन सिंह ने बदल दिया है और तमाम पार्टियां मुगालते में है कि वह जनता के साथ खडे होकर सत्ता में हैं।(ब्लॉग से साभार) 

घोटालों से निपटने की अद्भुत कला


पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव अद्भुत विरासत छोड़ गए हैं। भले ही लोग भारत में आर्थिक सुधार का श्रेय वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देते हैं, लेकिन इसके असली शिल्पकार नरसिम्हा राव थे। इकनॉमिक टाइम्स के टी. के. अरुण ने एक बार कहा था , ‘डॉ मनमोहन सिंह को सुधार का श्रेय देना वैसे ही है, जैसे आप बुकर सम्मान के लिए अरुंधती रॉय के वर्ड प्रोसेसर को क्रेडिट दें।‘ राव इससे भी प्रभावकारी एक और विरासत छोड़ गए। संकट से निपटने की उनकी कला पर वर्तमान नेता फल-फूल रहे हैं लेकिन कभी भी इसका श्रेय उन्हें नहीं दिया।

हमारे समय के लोग जानते हैं कि राव इस खेल में कितने निपुण थे। आम धारणा थी कि अगर कोई बड़ा विवाद हो और सरकार उसमें घिर गई हो, तो तय था कि एक दूसरा बड़ा मुद्दा पहले मुद्दे से लोगों का ध्यान हटा देता था। अगर ऐसा नहीं होता, तो उसे इतनी खूबसूरती से दूसरा मोड़ दे दिया जाता ताकि सबका ध्यान बंट जाता। बहुत सारे लोगों को याद होगा कि वह हर्षद मेहता विवाद में अटैची में एक करोड़ रुपये लेने के आरोपी थे। बहस का मुद्दा यह होना चाहिए था कि उन्हें पैसे मिले या नहीं, अगले दिन ज्यादातर चर्चाएं इस बात पर केंद्रित थीं कि अटैची कितनी बड़ी थी? क्या एक आदमी इसे खींच सकता था? और कितने के नोट थे? भ्रष्टाचार का असल मुद्दा और क्या हर्षद मेहता राव से मिले थे, इन पर शायद ही चर्चाएं हो पाईं।

चारों ओर से घिरी वर्तमान यूपीए सरकार तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से प्रकट रूप से संकट में फंसी दिख रही है। लगता है कि यह सरकार अच्छी तरह से राव के नक्शेकदम पर चल रही है। आप इस सरकार के घोटालों की लिस्ट देखिए और आपको समझ में आ जाएगा कि इस सरकार ने राव से किसी मोर्चे पर तो बेहतर किया है। एक घोटाले के बाद दूसरा घोटाला हो जाता है और लोगों का ध्यान पहले घोटाले पर से हट जाता है। हाइपर-ऐक्टिव मीडिया भी आगे बढ़ जाता है, क्योंकि पहले वाला ‘विशाल घोटाला’ ठंडे बस्ते में चला जाता है।

यह व्यवस्था घोटाले के सूत्रधारों के लिए अच्छी तरह से काम करती है। नित नए घोटाले सामने आने से उन्हें सुस्ताने का वक्त मिल जाता है। घोटाले में फंसा व्यक्ति जानता है कि कोई नया घोटाला आते ही सबका ध्यान कुछ समय के लिए दूसरों पर चला जाता है और वह इस तरह सीना चौड़ा करके घूमता है जैसे कुछ हुआ ही न हो।

इसे समझने के लिए यहां कुछ घोटालों का जिक्र कर रहा हूं। कैश फॉर वोट और हसन अली हवाला घोटाला 2008 में, मधु कोड़ा माइनिंग घोटाला और सुकना जमीन घोटाला 2009 में, कॉमनवेल्थ गेम्स और आदर्श हाउसिंग घोटाला 2010 में। इसरो-देवास डील, टाट्रा ट्रक घोटाला, कुख्यात 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला, दिल्ली एयरपोर्ट जमीन घोटाला, सुनियोजित तरीके से एयर इंडिया/ इंडियन एयरलाइंस की ‘हत्या’ और पूर्व आर्मी चीफ वीके सिंह के उम्र को लेकर विवाद और सीवीसी की नियुक्ति में गड़बड़ी को लेकर विवाद। यह लिस्ट बढ़ती ही जाएगी।

जो मैं कह रहा हूं, वह एक सरसरी निगाह डालने पर भी समझा जा सकता है। अलग-अलग घोटाले अलग-अलग समय पर हुए और अलग-अलग लोग इनमें ऐसे जुड़े पाए गए जैसे किसी नाटक के पात्र हों। काफी हद तक यही लगता है कि पिछले घोटाले से ध्यान हटाने, पीछा छुड़ाने के लिए अ��ला घोटाला सामने आया। हो सकता है कि मैं ओवर-रिऐक्ट कर रहा होऊं या फिर निराशावादी हो रहा होऊं, लेकिन यह सब इतना अफसोसजनक है कि हाल ही में तृणमूल कांग्रेस का सरकार से हाथ खींच लेने की धमकी देना भी कुछ फर्क पैदा करता नहीं दिखता। 

ये नेता लोगों को काफी ज्यादा बेवकूफ बनाते रहे हैं। जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूं, ऐसा लगता है कि हमारे नेता पुरातन काल में रह रहे हैं। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि दुनिया काफी आगे बढ़ चुकी है और भोले-भाले भारतीयों को बेवकूफ बनाने की जो चालें सालोंसाल से चलते आ रहे हैं, वे अब पूरी तरह से नाकामयाब हैं। हां, यह हो सकता है कि मीडिया पुराने मामले को छोड़कर नए मामले को टीआरपी के चक्कर में भुनाने लगता हो, लेकिन विशालकाय सोशल मीडिया, जिसका आधार दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है और जो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना बना रहा है, का असर कोई आई-गई बात नहीं है। इस सोशल मीडिया को इग्नोर नहीं किया जा सकता।

लगभग हरेक घोटाला डॉक्युमेंटेड है और जो कोई भी इसे पढ़ना/देखना चाहे, यह सभी के लिए उपलब्ध है। बस इतना ही नहीं, जैसे ही यह लगता है कि कोई घोटाला अपनी मौत मर रहा है, अचानक कोई न कोई उसके बारे में कुछ न कुछ जरूर छेड़ देता है और वह फिर से चर्चा के दायरे में आ जाता है। शुक्र है। और सिर्फ इसीलिए मीडिया की नजरों में आने से बच गए इनमें से कई घोटाले जागरूक सिटिजन जर्नलिस्ट्स की नजरों से नहीं बच पाते। वे सभी अपराधियों को याद दिलाते रहते हैं कि लोग अब पहले से कहीं ज्यादा जागरूक हैं, और न सिर्फ यह कि वे उनकी करनियां भूलेंगे नहीं,  बल्कि वे उनके कुकर्मों को उनके पास मौजूद प्लैटफॉर्म पर खूब दिखाएंगे-बताएंगे भी।

तो, जो लोग यह सोचते हैं कि वे मेरे देश को और निचोड़ते रहेंगे और बड़े आराम से निकल लेंगे, दोबारा सोचें!!



" 5th pillar corrouption killer " आपको रोजाना समसामयिक विषयों पर नयी सामग्री उपलब्ध कराता है !! जो मेरे और मेरे प्रिय मित्रों द्वारा लिखी गयी होती है ! जिसे आप हजारो
ं की संख्या में पढ़ते हैं, और सेंकडों की संख्या में शेयर व कोमेंट्स भी करते हैं !! मैं अपने सभी लेखक व पाठक मित्रों का दिल से आभार प्रकट करता हूँ !! धन्यवाद !! आपका आभारी :- पीताम्बर दत्त शर्मा ( संपर्क : 9414657511 ) priya mitrwar , saadar namaskaar !! rozana padhen , share karen or apne anmol comments bhi deven !! hmara apna blog , jiska naam hai :- " 5TH PILLAR CORROUPTION KILLER " iska link ye hai ...:-www.pitamberduttsharma.blogspot.com. sampark number :- 09414657511

Friday, September 21, 2012

" सरदार मनमोहन सिंह जी, पैसे - पेड़ों पे नहीं लगते " !!!


           " पाकिस्तान,बांग्लादेश,नेपाल आदि देशों को धन क्यों बांटते फिरते हो "?????
   50/-से  300/- तक की सब्सिडी तो भार लग रही  है , लेकिन कार्पोरेट घरानों को करोड़ों की सब्सिडी बांटी जा  रही है क्यों ????
क्या  सिर्फ इसलिए क्योंकि " इसी सब्सिडी की राशि में से आपकी पार्टी को चंदा वापिस मिलता है " ???
               मुलायम जी , साम्प्रदायिक शक्तियां अब तक जिंदा क्यों हैं  ????
                ये    किसकी गलती है ?? खुलकर क्यों नहीं  बोलते ?????
                   आप अब कोंग्रेस का समर्थन  कर रहे हो , तो इनके द्वारा किये गए घोटालों में भी आपको  बराबर का हिस्सेदार माना  जाएगा , और सज़ा भी दी जाएगी  !!
                    सोचो    - - !! भारत वासियों - सोचो !!
            

"साम्प्रदायिकता का डर दिखा कर किसको वरगला रहे हो , एजेंट मुलायम जी " !! ??

"साम्प्रदायिकता का डर दिखा कर किसको वरगला रहे हो , एजेंट मुलायम जी " !! ??


मुलायम और कांग्रेस के लिए "साम्प्रदायिक शक्तियां" मतलब सिर्फ हिंदुत्व और कुछ नही

आप इस्लाम के नाम पर मुंबई के दंगे कर सकते है .. आसाम को जला सकते है .. शहीद स्मारक को लातो से तोड़ सकते है ..संसद में एलान कर सकते है की मुस्लिम इस देश की ईट से ईट बजा देंगे ... आप खुल्लेआम मुस्लिम आरक्षण का एलान कर सकते है .. मुस्लिमो के लिए वजीफे का एलान कर सकते है ,. हज पर सब्सिडी दे सकते है .. इमामो के लिए सरकारी सेलेरी का एलान कर सकते है ...आप हिन्दू देवियो की बेहद अश्लील पेंटिंग बना सकते है ...

फिर भी आप धर्मनिरपेक्ष कहे जायेंगे !!

लेकिन अगर आपने हिंदुत्व की बात की तो आप घोर साम्प्रदायिक कहे जायेंगे |

वाह रे मुलायम ... सत्ता की मलाई चाटने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हो तुम ... कभी बाबर का विवादित ढांचा तोड़ने वाले कल्याण सिंह को लोध जाति के वोट के लिए गले लगाया .. तो कभी दुनिया के सबसे बड़े दलाल अमर सिंह से खूब दलाली कमाई .. लेकिन लगता है ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वाले "यूज एंड थ्रो" शब्द आपसे ही लिए ... कभी लोहियावाद तो कभी जेपी का समाजवाद सब जब चाहा इस्तेमाल किया फिर उठाकर फेक दिया ..

इन सम्प्रायिक शक्तियो को दूर रखना जरूरी है !!! चाहे उसकी कीमत हिन्दुस्तानियो को लूटकर चुकानी पड़े ! सारे घोटाले माफ साम्प्रदायिकता के नाम पर, सेक्युलर मतलब देशभक्तो का विरोध और गद्दारो के लिये तुष्टिकरण की नीति !

मुलायम जी कांग्रेस को समर्थन का मतलब है मंहगाई, भ्रष्टाचार, लूट. बलात्कार, का खुल्लेआम समर्थन |

लेकिन देश तो मुलायम से ज्यादा नीच कांग्रेस को मानता है जो सिर्फ सत्ता के लिए किसी वेश्या की तरह किसी के साथ भी सो जाएगी | मेरे मित्रो याद करो भोदू युवराज राहुल गाँधी का यूपी में भाषण वो हर भाषण में मुलायम को गुंडों का मुखिया और सपा को गुंडों की पार्टी बताते थे .. आज वही नीच भोदू युवराज राहुल गुंडों की पार्टी के तलवे चाट रहा है ...

वाह रे गाँधी की कांग्रेस .. वाह रे कांग्रेस ने सिधांत


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तुझको भी ग़म ने मारा....
मुझको भी ग़म ने मारा ....
आओ सब मिलकर....
ग़म को ही मार डालें ....
वर्त्तमान केंद्र सरकार में शामिल एवं बाहर से समर्थन देने वाले सभी दलों को सबक सिखाएं......... और भाजपा नेतृत्व से ये वचन लें कि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें हर हाल में २००३ की स्थिति में लायेंगे.....
भारतस्य रक्षणार्थ उत्तिष्ठ भारत......

Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh (RAJ.) at 3:05 AM

"साम्प्रदायिकता का डर दिखा कर किसको वरगला रहे हो , एजेंट मुलायम जी " !! ??


            "साम्प्रदायिकता का डर दिखा कर किसको वरगला रहे हो , एजेंट मुलायम जी " !! ??
 
मुलायम और कांग्रेस के लिए "साम्प्रदायिक शक्तियां" मतलब सिर्फ हिंदुत्व और कुछ नही

आप इस्लाम के नाम पर मुंबई के दंगे कर सकते है .. आसाम को जला सकते है .. शहीद स्मारक को लातो से तोड़ सकते है ..संसद में एलान कर सकते है की मुस्लिम इस देश की ईट से ईट बजा देंगे ... आप खुल्लेआम मुस्लिम आरक्षण का एलान कर सकते है .. मुस्लिमो के लिए वजीफे का एलान कर सकते है ,. हज पर सब्सिडी दे सकते है .. इमामो के लिए सरकारी सेलेरी का एलान कर सकते है ...आप हिन्दू देवियो की बेहद अश्लील पेंटिंग बना सकते है ...

फिर भी आप धर्मनिरपेक्ष कहे जायेंगे !!

लेकिन अगर आपने हिंदुत्व की बात की तो आप घोर साम्प्रदायिक कहे जायेंगे |

वाह रे मुलायम ... सत्ता की मलाई चाटने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हो तुम ... कभी बाबर का विवादित ढांचा तोड़ने वाले कल्याण सिंह को लोध जाति के वोट के लिए गले लगाया .. तो कभी दुनिया के सबसे बड़े दलाल अमर सिंह से खूब दलाली कमाई .. लेकिन लगता है ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वाले "यूज एंड थ्रो" शब्द आपसे ही लिए ... कभी लोहियावाद तो कभी जेपी का समाजवाद सब जब चाहा इस्तेमाल किया फिर उठाकर फेक दिया ..

इन सम्प्रायिक शक्तियो को दूर रखना जरूरी है !!! चाहे उसकी कीमत हिन्दुस्तानियो को लूटकर चुकानी पड़े ! सारे घोटाले माफ साम्प्रदायिकता के नाम पर, सेक्युलर मतलब देशभक्तो का विरोध और गद्दारो के लिये तुष्टिकरण की नीति !

मुलायम जी कांग्रेस को समर्थन का मतलब है मंहगाई, भ्रष्टाचार, लूट. बलात्कार, का खुल्लेआम समर्थन |

लेकिन देश तो मुलायम से ज्यादा नीच कांग्रेस को मानता है जो सिर्फ सत्ता के लिए किसी वेश्या की तरह किसी के साथ भी सो जाएगी | मेरे मित्रो याद करो भोदू युवराज राहुल गाँधी का यूपी में भाषण वो हर भाषण में मुलायम को गुंडों का मुखिया और सपा को गुंडों की पार्टी बताते थे .. आज वही नीच भोदू युवराज राहुल गुंडों की पार्टी के तलवे चाट रहा है ...

वाह रे गाँधी की कांग्रेस .. वाह रे कांग्रेस ने सिधांत
                                                                                                      Jitendra Pratap Singh......................................!!

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तुझको भी ग़म ने मारा....
मुझको भी ग़म ने मारा ....
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भारतस्य रक्षणार्थ उत्तिष्ठ भारत......

Tuesday, September 18, 2012

" ममता का जबरदस्त - - छक्का " !!

    " ममता का जबरदस्त - - छक्का " !! 
" लालू - मुलायम - माया हुए, हिट - विकेट" !! 
 " मनमोहन  सिंह के शेयर हुए हवा " !!
 " किसकी  गलत  नीतियों -  निर्णयों से देश की हालत बिगड़ी  ,इज्ज़त गयी और मजबूरी  हुई "
" क्या  वो साम्प्रदायिक - शक्तियां थीं " !! 
  " क्या  तीसरा - मोर्चा सिर्फ मौका - परस्त नेताओं का खेल है "???? 
 " क्या   ममता ने c.b.i.की पोल खोल दी है " ????
 " कंही ये2014 में प्रधानमंत्री बनने का खेल तो नहीं" ?????????
 " आर्थिक- नीतियाँ  , इतनी बढ़िया हैं तो देश के इतने बुरे हालात क्यों ??????
                         
                               क्या  जनता   फिर से बनेगी बेवकूफ ???? क्या वो एक बार फिर से पैसे लेकर,दारु    पीकर, जाती- धर्म- इलाका और पार्टी देख कर, अपना " वोट " देगी ????//

        "  विकल्प  ढूंढो   मित्रो विकल्प " !!!!!!!!!!


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" कोयला बना - हीरा " ??








कांग्रेस के नेता का कमाल देखो.......

Secret of Jindal’s success: Cheap coal, costly power - The Times of India
timesofindia.indiatimes.comनई दिल्ली: हाल के खुलासे से पता चला है, अपनी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर कई कोयला ब्लॉकों से प्राप्त की. लेकिन कुछ बस बनाने और बेचने उच्च कीमतों पर बिजली प्राप्त की.

इस मामले में जिंदल पावर लिमिटेड (जेपीएल), जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड (जेएसपीएल), कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल द्वारा स्वामित्व की एक सहायक है.

अपने छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में कोयला आधारित बिजली परियोजना के एक 'व्यापारी शक्ति के आधार पर संचालित करने के लिए भारत में पहली परियोजना है. इसका मतलब यह है कि अन्य राज्य सरकारों के साथ लंबी अवधि के बिजली खरीद समझौतों (PPAs) के माध्यम से तय टैरिफ द्वारा बाध्य परियोजनाओं के विपरीत, JPL हाजिर दरों पर बिजली बाजार में किसी भी खरीदार को बेचने के लिए स्वतंत्र है.

कंपनी 1000MW संयंत्र 2008 में परिचालन पूरी तरह से बदल गया है. अगले साल से अधिक है, यह 6 रुपये प्रति यूनिट से अधिक की औसत कीमत पर बिजली बेच दिया. 2010 तक, उच्च रिटर्न केवल अपनी चल रहा है लेकिन यह भी लागत ४३३८ करोड़ रुपये का निवेश नहीं शामिल किया था. बुनियादी ढांचे के विशेषज्ञों के अनुसार, यह 5-7 साल की एक न्यूनतम लेता बिजली परियोजनाओं में पूंजी निवेश के लिए किए गए ऋण चुकाने.

हालांकि, कि इस परियोजना के साथ ऐसा नहीं है. अनुसंधान फर्म मोतीलाल ओसवाल नोट्स द्वारा एक जुलाई 2011 की रिपोर्ट, "जिंदल पावर कम लागत के कारण मजबूत नकदी प्रवाह के कारण आपरेशन के दो साल के भीतर कर्ज मुक्त बन गया है." गारे पाल्मा चतुर्थ / 2 और / चतुर्थ कोयले की 246 लाख टन की संयुक्त भंडार के साथ 3 - कम लागत का एक बड़ा घटक सस्ते सिर्फ अपनी कैप्टिव कोयला खदान से दूर 10km प्राप्त कोयला था.
जिंदल मामले में सरकार के 'कम लागत वाली शक्ति' रक्षा deflates

कोयला 1998 में जिंदल पावर लिमिटेड (जेपीएल) के लिए आवंटित ब्लॉक, राजग शासन के दौरान यूपीए के तहत आवंटन, जो जिंदल समूह कोयला ब्लॉक के आवंटन से सबसे अधिक लाभान्वित करने में हुआ है के एक धसान के द्वारा पीछा किया गया था. यह कोयले की २,५८० लाख टन का भंडार है, जबकि निजी क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा लाभार्थी सिर्फ 1500 लाख टन है.

जिंदल पावर को ईमेल किए गए प्रश्नों को अनुत्तरित गया.

"समस्या यह है कि कंपनी के कोयले के विशाल भंडार के लिए पहुँच गया नहीं है, मुद्दा यह है कि यह सस्ता कोयला का उपयोग करता है दूसरों की तुलना में ज्यादा कीमत पर बिजली बेचने" Sudeip श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ में स्थित एक कार्यकर्ता ने बारीकी से नज़र रखी है कहते हैं राज्य की बिजली परियोजनाओं के प्रदर्शन दस्तावेजों जो बताते हैं कि JPL पिछले अक्टूबर शक्ति का 22 लाख यूनिट 5.47 रुपये प्रति यूनिट के रूप में उच्च के रूप में एक मूल्य के लिए बेच दिया प्राप्त किया है.

उत्तरी छत्तीसगढ़ में तीन बिजली परियोजनाओं के एक तुलनात्मक विश्लेषण किया Sipat सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनटीपीसी, लैंको समूह और JPL रायगढ़ परियोजना की अमरकंटक परियोजना के परियोजना - टाइम्स ऑफ इंडिया. तीन परियोजनाओं में एक ही समय के आसपास अस्तित्व में आया. लैंको और JPL समान आकार की इकाइयों है, जबकि एनटीपीसी की इकाइयों बड़े होते हैं.

लेकिन बड़ा अंतर, एनटीपीसी में अधिकारियों ने कहा कि, कोयले की लागत है. लैंको अमरकंटक और एनटीपीसी Sipat साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स, कोल इंडिया के एक सहायक से कोयला खरीदने के लिए. JPL अपने स्वयं के कोयला खानों. एनटीपीसी औसत ईंधन लागत पिछले साल 1200 रुपये प्रति टन जबकि लैंको लागत 1020 रुपये प्रति टन की एक औसत के लिए बाहर काम करने के लिए आया था.

जिंदल अधिकारियों को कंपनी की कोयला लागत आंकड़े साझा करने से इनकार कर दिया. लेकिन छत्तीसगढ़ के खनन उद्योग में सूत्रों ने बताया कि JPL लागत 300-400 रुपये प्रति टन से अधिक नहीं हो के रूप में यह एक खुली खदान है, जिसके लिए यह कम कीमत पर जमीन खरीदी थी से कोयले के निष्कर्षों सकता है. कोयले की प्रति टन 500 रुपये, कोल इंडिया के मौजूदा मार्जिन पर आधारित है, भी एक व्यापक अनुमान लेना अभी भी आधा अपने प्रतियोगियों के कोयले की लागत के साथ JPL छोड़ना होगा.

सस्ता कोयला आदर्श कम बिजली की कीमतों में अनुवाद होना चाहिए - कम से कम इस कोयला मंत्रालय और यूपीए के प्रमुख रक्षा किया गया है. उन्होंने तर्क दिया है कि कोल ब्लॉक मुक्त करने के लिए निजी कंपनियों को बिजली टैरिफ को कम रखने के लिए दिया गया.

लेकिन सस्ता कोयला होने के बावजूद, जिंदल सबसे अधिक कीमत पर बिजली बेच दिया 2011-2012 में 3.85 रुपए प्रति यूनिट, लैंको रुपये 3.67 और एनटीपीसी 2.20 रुपये की तुलना में. पिछले वर्ष, JPL प्रति यूनिट 4.30 रुपये की भी उच्च दर पर बिजली बेच दिया था. सस्ते कोयले और उच्च शक्ति की कीमतों के संयोजन बताते हैं कि क्यों जिंदल लाभ, या अपनी आय का 60% के रूप में 1765 करोड़ रुपये के पोस्ट किया है, जबकि लैंको सिर्फ 155 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया है, बस अपनी आय का 12%.

वास्तव में, व्यापारी बिजली की दर से आकर्षित किया, लैंको अमरकंटक राज्य बिजली कंपनियों के साथ लंबी अवधि के समझौते से मुकर गया. लेकिन यह सजा दी गई. इस साल, कोल इंडिया लैंको संयंत्र के लिए आधार है कि राज्य बिजली वितरण कंपनियों के साथ लंबी अवधि के PPAs के साथ उन ही रियायती दरों पर कोयले के लिए पात्र थे पर 35 दिनों के लिए आपूर्ति बंद कर दिया. जो निर्धारित शुल्क के साथ लंबी अवधि के अनुबंध नहीं था नीलामी से महंगा कोयला खरीदने के लिए होगा.

निर्देश बिजली मंत्रालय से शुरू हुआ था. 15 जून को जारी किए, Coalgate 'के खुलासे के बाद चेहरे की बचत के उपायों में सरकार को मजबूर किया गया था, यह सुनिश्चित करना है कि "(कोल इंडिया) अधिसूचित दरों पर कोयले की कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को पारित किया गया था," ने कहा कि इस कदम के उद्देश्य से किया गया था.

लेकिन कंपनियों है कि कोल इंडिया निर्भर नहीं है और कैप्टिव कोयला खानों से कोयले की आपूर्ति भी सस्ता है के बारे में क्या? "नियामकों में कदम है और अनुबंध को फिर से खोलना और कैप्टिव ब्लॉक के साथ उन लोगों के लिए मजबूर करने के लिए राज्य वितरण कंपनियों के साथ लंबी अवधि के समझौते पर हस्ताक्षर करना चाहिए", इन्फ्रास्ट्रक्चर में नियामक रूपरेखा पर सीआईआई की राष्ट्रीय टास्क फोर्स के अध्यक्ष विनायक चटर्जी ने कहा. "हम पिछले कुछ वर्षों में देखा क्या एक नीति विपथन जो सही किया जाना चाहिए था कि अब तक कम लागत के साथ वे अनुमति यह व्यापारी शक्ति बाजार में लाभ उठाने के लिए नहीं करना चाहिए," उन्होंने कहा.
 — with सच्चा भारतीयभारतीय हिन्दु
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...